Wednesday, December 15, 2010

ACHCHI NAHI YE BAAT – NADEEM SARWAR

ACHCHI NAHI YE BAAT – NADEEM SARWAR

Efforts: Kamberali J Shamji (kamsham@adelphia.net) http://www.ziaraat.com

Ahoor ki shab haye, sakinaa ka wo ronaaaa
Aur sayyadayyyy, mazloom ka betiii se yeh kahenaaaa
Are tu royayyy, mai ye dekh nahiiii, sakta sakinaaaa
Achchi nahi ye baat, na roya karo bibiiii - M
(Achchi nahi ye baat, na roya karo bibiiii)
(Achchi nahi ye baat, na roya karo bibiiii)

Paheloo mein kabhi maa kay bhi so, yaa karo bi bi
(Paheloo mein kabhi maa kay bhi so, yaa karo bi bi)
(Achchi nahi ye baat, na roya karo bibiiii)
(Achchi nahi ye baat, na roya karo bibiiii)

Kyaa howay kisi shabaa ko jo hum, ghar mein na ayayy
Tum humko na paaon, tumhay hum, bhi nahi payayyy
Tadpongi nahi darda say waada, karo bibiiii
Paheloo mein kabhi maa kay bhi so, yaa karo bi bi
(Paheloo mein kabhi maa kay bhi so, yaa karo bi bi)
(Achchi nahi ye baat, na roya karo bibiiii)

Aaray baitha karo kuch dair charaa, ghon ko bujhaakarrr
Samjha karo is khaaq ko aaii, laadli bistaarr
Baali kabhi yun hi, nahi pahayna karo bibiiii
Paheloo mein kabhi maa kay bhi so, yaa karo bibi
(Paheloo mein kabhi maa kay bhi so, yaa karo bibi)
(Achchi nahi ye baat, na roya karo bibiiii)

Aaray kuch dair ko ye farza karo, hum na rahay garrr
Baaqi na rahay haath koii, rakhnay ko sar parrr
Mahaul yateemon, ka bhi, sochaa karo bibiiii
Paheloo mein kabhi maa kay bhi so, yaa karo bibi
(Paheloo mein kabhi maa kay bhi so, yaa karo bibi)
(Achchi nahi ye baat, na roya karo bibiiii)

Aadat zaraa tanhaii mein raha, nay ki bhi daalo
Tasveer tasawwoor mein asee, ri ki bana lo
Azaad parindon, ko na dekhaa karo bibi
Paheloo mein kabhi maa kay bhi so, yaa karo bibi
(Paheloo mein kabhi maa kay bhi so, yaa karo bibi)
(Achchi nahi ye baat, na roya karo bibiiii)

Aaray asghaarr ko na manoos karo, pyaar say apnayyyy
Akbar kay urusee kay na de,khaa karo sapnayyyy
Sughraa kay qareeb it,naa na baithaa karo bibiii
Paheloo mein kabhi maa kay bhi so, yaa karo bi bi
(Paheloo mein kabhi maa kay bhi so, yaa karo bi bi)
(Achchi nahi ye baat, na roya karo bibiiii)

Aaray zindaan say Rehaan sadaa, aati hai aqsaarrrr
Jaisay kay sakinaa, say yeh far,maatay ho sarwaarrr
Aab darr say laeenon kay na jaaga, karo bibiii
Paheloo mein kabhi maa kay bhi so, yaa karo bi bi
(Paheloo mein kabhi maa kay bhi so, yaa karo bi bi)
(Achchi nahi ye baat, na roya karo bibiiii)

Top most Nauha By Nadeem Sarwar
Witten By Rehan Azmi

Friday, November 19, 2010

प्रधानमंत्री सशक्त और ईमानदार हो-किरण बेदी, इंटरव्यू ,-भीका शर्मा और गायत्री शर्मा


प्रधानमंत्री सशक्त और ईमानदार हो-किरण बेदी,
इंटरव्यू ,-भीका शर्मा और गायत्री शर्मा
बुद्धि, कौशल हर चीज में किरण लड़कों से कम नहीं। 'लोग क्या कहेंगे' इस बात की किरण ने कभी भी परवाह नहीं करते हुए अपनी जिंदगी के मायने खुद निर्धारित किए। अपने जीवन व पेशे की हर चुनौती का हँसकर सामना करने वाली किरण बेदी साहस व कुशाग्रता की एक मिसाल हैं, जिसका अनुसरण इस समाज को एक सकारात्मक बदलाव की राह पर ले जाएगा। 'क्रेन बेदी' के नाम से विख्यात इस महिला ने बहादुरी की जो इबारत लिखी है, उसे सालों तक पढ़ा जाएगा।

हमने की खास मुलाकात किरण बेदी जी के साथ।

प्रश्न : जब आप आईपीएस चुनी गईं तब समाज में महिलाओं का पुलिस सेवा में जाना अच्छा नहीं माना जाता था। क्या आपको परिवार की ओर से इस तरह की कोई दिक्कत पेश हुई?

उत्तर : परिवार अगर विरोध करता तो शायद मैं इस पोजीशन तक नहीं पहुँच पाती। किरण बेदी अपने परिवार का ही प्रोडक्ट थी परंतु यह सच है कि उस समय महिलाओं का पुलिस सेवा में जाना समाज की दृष्टि में ठीक नहीं माना जाता था।

प्रश्न : आपकी सफलता में आपके पति का कितना योगदान रहा?

उत्तर : मेरे पति का मेरी हर कामयाबी में भरपूर योगदान रहा। मेरी हर सफलता को वे अपनी सफलता मानते हैं।


स्वयंसेवी संस्थाएँ जुड़े

जो हमने तिहाड़ जेल में किया वो देश की हर जेल में हो सकता है। इसके लिए आवश्यकता है कि स्वयंसेवी संस्थाओं को इस कार्य में जोड़ा जाए। जितनी ज्यादा स्वयंसेवी संस्थाएँ इस पुनीत कार्य से जुड़ेंगी उतना ही अधिक सुधार होगा

प्रश्न : आपकी कचहरी के माध्यम से जनता से सीधे संवाद करने का आपका अनुभव कैसा रहा?

उत्तर : इस कार्यक्रम के माध्यम से हमें एक सामाजिक जरूरत का पता लगा कि आज देश को ऐसे ही फोरम की जरूरत है। वो चाहते हैं कि कोई तुरंत न्याय वाले माध्यम से उनकी कोई मदद करे। ऐसा कोई फोरम हो जिसमें एक ही सुनवाई के भीतर लोगों को त्वरित न्याय मिले। आज यह कार्यक्रम लोगों को न्याय दिलाने का एक माध्यम बन रहा है।

प्रश्न : क्या आपको ऐसा लगता है कि भारतीय न्याय प्रणाली की सुस्तैल व्यवस्था के कारण कई वर्षों तक न्यायालयों में ही प्रकरण लंबित पड़े रहते हैं और लोग न्याय की गुहार करते-करते ही अपने जीवन का आधा समय व्यतीत कर देते हैं?

उत्तर : ये हकीकत है कि न्याय मामले लंबित हैं व न्यायालय में मुकदमों की सुनवाई में सालों लग जाते हैं। सीनियर ज्यूडीशरी ने भी इसे स्वीकारा है कि हमारे यहाँ अदालतों में बहुत एरियर्स हैं। लोगों को विश्वास नहीं है कि उन्हें न्याय मिल ही जाएगा। इसलिए वो दूसरे रास्ते ढूँढ़ते हैं और उनको कुछ मिलता नहीं है। कोर्ट में मुकदमे बहुत अधिक हैं व उनकी सुनवाई करने वाले जजों की संख्या बहुत कम है, इसीलिए तो वर्तमान में लोक अदालत की लोकप्रियता बढ़ रही है, लेकिन आज भी बहुत सारी ऐसी बिजली अदालत और लोक अदालत की जरूरत है।

प्रश्न : जिस तरह से आपके प्रयासों से तिहाड़ जेल ‘तिहाड़ आश्रम’ में बदल गई, क्या आप मानती हैं कि आज देश की हर जेल को भी तिहाड़ जेल की तरह आश्रम बनाना चाहिए?

उत्तर : जो हमने तिहाड़ जेल में किया वो देश की हर जेल में हो सकता है। इसके लिए आवश्यकता है कि स्वयंसेवी संस्थाओं को इस कार्य में जोड़ा जाए। जितनी ज्यादा स्वयंसेवी संस्थाएँ इस पुनीत कार्य से जुड़ेंगी उतना ही अधिक सुधार होगा तथा कैदियों को शिक्षा के साथ स्वावलंबन के अन्य कार्यों का भी प्रशिक्षण मिलेगा। इससे उनकी आपराधिक प्रवृत्तियों पर अंकुश लगेगा।


प्रशन : आज भी भारतीय महिलाएँ पिछड़ी हैं। उन पर अत्याचार हो रहे हैं। इसके पीछे क्या कारण है?

उत्तर : उनकी परवरिश ठीक नहीं है। कहीं स्कूल दूर है तो कहीं उन्हें रोजगारोन्मुखी प्रशिक्षण नहीं मिल पा रहा है। वे जो पढ़ना चाहती हैं वह पढ़ नहीं पाती हैं। वे जो काम करना चाहती हैं कर नहीं पाती हैं। इस प्रकार वे मजबूर होघर कामकाज में ही अपनी सारी जिंदगी गुजार देती हैं। आज शादी ही भारतीय महिलाओं के जीवन का एक आधार है जो कि नहीं होना चाहिए। अगर शादी सफल हुई तो उनका जीवन अच्छा है अन्यथा बर्बाद है।


प्रश्न : आपके अनुसार देश का प्रधानमंत्री कैसा होना चाहिए?

उत्तर : देश का प्रधानमंत्री ईमानदार और मजबूत होना चाहिए, लेकिन उसके पीछे मेजोरिटी भी होना चाहिए। अगर मेजोरिटी नहीं है या उस पर ऐसे गठजोड़ हैं जो हर चीज पर कभी हाँ और कभी ना करें तो वो सरकार क्या चलेगी। तो ये गणित नहीं है। यदि वो खुद ही असुरक्षित हो, उसके पास नंबर ही नहीं हो, गणित ही नहीं हो तो वो क्या करेगा। प्रधानमंत्री के पीछे आइडियोलॉजी और सशक्त पार्टी होना चाहिए।

प्रश्न : आपने राजनीति में रुचि क्यों नहीं ली?

उत्तर : क्योंकि मेरी इसमें रुचि नहीं है। पब्लिक लाइफ में मेरी रुचि शत प्रतिशत है, लेकिन पॉलीटिकल लाइफ में बिलकुल नहीं है।

ज्ञान पीठ मिलने के बाद शहरयार से इंटरव्यू

ज्ञान पीठ मिलने के बाद शहरयार से इंटरव्यू
आपने जब सुना कि ज्ञानपीठ पुरस्कार आपको मिलने जा रहा है तो, आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या थी?

काफी खुशी हुई। इतनी खुशी कि मैं लफ्जों में बयान नहीं कर सकता हूं। दरअसल हम जिस गंगा-जमुनी तहजीब से हैं, वहां ज्यादा गम और खुशी के लिए शब्द बने ही नहीं हैं, लेकिन निजी तौर पर यह मेरे लिए एक अहम उपलब्धि थी। इससे भी अहम कि बुढ़ाती उम्र के बावजूद मैं लगातार काम कर रहा हूं, जिसे सम्मान मिल रहा है।


आप शिक्षा क्षेत्र से जुड़े रहे हैं। उर्दू, शेरो-शायरी की दर्जनों किताबें लिख चुके हैं। कई पुरस्कार आपको मिल चुके हैं। फिल्मों के लिए भी आपने गीत लिखे। इतने सारे काम, कैसा लग रहा है आपको?

लाजिमी तौर पर अच्छा ही लगेगा। करीब दो दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वर्ष 1957 से लगातार लिख रहा हूं। साहित्य अकादमी पुरस्कार, फिराक सम्मान और उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी सम्मान और दिल्ली उर्दू अकादमी सम्मान मिल चुके हैं। आज भी लोगों की जुबान पर मेरे लिखे गीत हैं। हां, कभी-कभी बुरा तब लगता है जब फिल्मों के जरिये ही लोग मुझे जानने लगते हैं, लेकिन अपने आप में यह भी गर्व की बात है। इससे ज्यादा क्या चाहिए मुझे? देश ने, समाज ने काफी कुछ मुझे दिया है और मैं अपने आप से काफी संतुष्ट हूं। बहुत कम लोग जानते हैं कि आपका वास्तविक नाम कुंवर अखलाक मोहम्मद खान है। हां। मैं अपने उपनाम शहरयार से ही लोगों के बीच जाना जाता हूं। एकाध गजल मैंने उस नाम से भी लिखे हैं। कुंवर का तखल्लुस के तौर पर इस्तेमाल किया। कोई 1956-57 के आसपास मैं इसी तखल्लुस का इस्तेमाल करता था, लेकिन तब के जान-पहचान वालों ने कहा कि मजा नहीं आ रहा है। किसी ने कहा-यार नाम है कि इतिहास तो किसी ने कहा-गैर-शायराना नाम है। तब खलीलुर्रहमान आजमी जी, जिनका मैं काफी कद्र करता रहा, उन्होंने कहा कि कुंवर ही रहना है तो शहरयार रख लो। इसका भी मतलब राजकुमार ही होता है। बस मैंने तबसे शहरयार के नाम से लिखना शुरू कर दिया।

बचपन में गुजारे अपने वक्त के बारे में कुछ बताइए?

अब तो मोटा-मोटी बहुत कुछ याद भी नहीं रहा। वैसे भी याद तब ज्यादा आती है जब आपने बचपन में दुख-दर्द सहे हों। अल्लाह की दुआ से ऐसा कुछ भी नहीं था। ऐशो-आराम से बचपन गुजरा। पैसे की तल्खी कतई नहीं थी। फिर भी बचपन तो बचपन सा ही होता है। हम नंगे पांव घूमते थे। बागों में जाकर जमकर आम-ककड़ी खाया करते थे। मैं हॉकी का अच्छा खिलाड़ी था। आज जब दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेल हो रहे हैं तो मैं आपको बता दूं कि मैं काफी अच्छा एथलीट भी रहा। स्कूल-कॉलेज स्तर पर खूब नाम कमाए, लेकिन ये सब शौक के तौर पर ही रहा।

और आपने तालीम देने को आपना पेशा चुना, ऐसा करने की क्या वजह रही? कहां-कहां आपने नौकरी की?

जैसा कि मैंने बताया कि शौक के तौर पर मैं खेलता था। शौकिया तौर पर ही लिखना शुरू किया। इस ओर कैरियर बनाने के बारे में कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा। शायद यह उस वक्त का असर था। हमने देश की आजादी के बाद अपनी जिंदगी में रंग भरने शुरू ही किए थे। इसलिए कैरियर के सभी कोण हमारे सामने नहीं थे। समाज में भी उस वक्त एक कहावत थी- खेलोगे, कूदोगे बनोगे खराब, पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब। इसका भी असर था। बहरहाल अंजुमन-तहरीके उर्दू में साहित्यक सहयोगी के तौर पर काम करना शुरू किया। अलीगढ़ मुस्लिम विश्र्वविद्यालय में लेक्चरर का पद खाली था। वहां मेरा चयन हो गया। इसके बाद 1996 तक मैंने नौकरी की। बाद में उर्दू विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत हुआ और अब फिलहाल अलीगढ़ में ही गुजर-बसर हो रहा है।

शेरो-शायरी से जुड़े अपने परफॉर्मेस के बारे में भी कुछ बताइए

देखिए, इस मामले में मैं थोड़ा संकोची किस्म का रहा हूं। शुरुआती दिनों में पढ़ने की ख्वाहिश नहीं थी। सबसे पहला मुशायरा गुजरात के अहमदाबाद में किया। मेरे विचार से वह कोई 1961 का साल था। मेरी जमात में दो लोग और थे-एक बशीर बद्र भाई और दूसरे विमल कृष्ण अश्क। 1962-63 में लाल किले में भी एक बड़े मुशायरे का हिस्सा बनने का मौका मिला। इधर काफी अरसे से मैं मुशायरों में शिरकत करने लगा हूं और अब यह सब बहुत अच्छा भी लगता है।

फिल्म उमराव जान के लिए आपने गाने लिखे। कैसे मुमकिन हुआ?

मुजफ्फर अली उम्दा निर्देशक हैं। उन्हें ऐसे गीतों की जरूरत थी जो पटकथा को आगे बढ़ाए। यही नहीं वह अक्सर इस बात पर ज्यादा जोर देते कि संगीत पक्ष की मजबूती के अलावा गीत के बोल ऐसे लिखे होने चाहिए जिसके मायने हों। मेरी शेरो-शायरी की वह बहुत कद्र भी किया करते थे। बस हम-दोनों मिले और गाने बन गए। आज यह विश्र्वास नहीं होता कि ऐसे गाने बने जो 30 साल से गुनगुनाए जा रहे हैं। वरना मुंबइया फिल्मों के ज्यादातर गाने तो आज आए और कल गए वाले होते हैं।

आपके बारे में यह धारणा है कि आप फिल्मों के लिए लिखना नहीं पसंद करते हैं?

दरअसल, मैं किसी ऐसे फिल्म में गाने नहीं लिख सकता जिसमें गाना कहानी का हिस्सा न हो। एक बात और कि मैं बेहतर शब्दों के इस्तेमाल पर भी ध्यान देना पसंद करता हूं। इसके साथ समझौता नहीं कर सकता। अगर निकट भविष्य में उमराव जान की तरह की फिल्में बनेंगी तो मैं उसमें गाने जरूर लिखूंगा। दूसरी बात यह भी है कि मैं मुंबई में रहना पसंद नहीं करता हूं। मेरे लिए अलीगढ़ के खास मायने हैं। जो फिल्मकार मेरे पास आते हैं, यदि उनकी स्कि्रप्ट में दम होता है और गाना उसका हिस्सा होता है तो मैं उनके लिए लिखता हूं। आपको बता दूं कि उमराव जान के बाद मैंने कुछ और फिल्मों के लिए गाना लिखा। मुजफ्फर अली के अंजुमन के लिए लिखा। हब्बा खातुन ज़ुनी के गाने भी मैंने ही लिखे, लेकिन दुर्भाग्य से यह फिल्म रिलीज नहीं हो पाई।

आप शेरो-शायरी को काफी गंभीरता से लेते रहे हैं। इतनी गंभीरता कि आपने बॉलीवुड की चमक-दमक से भी समझौता नहीं किया, लेकिन साहित्य में इसे विशेष तवज्जो नहीं मिलती है। लोग इसे गम में डूबे हुए किसी शख्स की मर्शिया के तौर पर मानते हैं?

आपकी इस बात पर मुझे सख्त ऐतराज है। आज के दौर में भी शेरो-शायरी को गंभीरता से लिया जाता है। कद्रदानों की कमी नहीं है, बस देखने का फर्क बदल गया है। मुझे ज्ञानपीठ पुरस्कार अपनी उर्दू गजलों की वजह से मिला है। इससे पहले भी तीन उर्दू गजलकारों को यह पुरस्कार मिल चुका है। वरना साहित्य के क्षेत्र में गलत चयन पर आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो जाते हैं। अब तक यह पुरस्कार मिलने को लेकर कोई टिप्पणी मीडिया में नहीं आई है। साफ है कि सबने मुझे इसका हकदार समझा। हां, अगर आप बेहतर शायरी लिखें ही नहीं और कहें कि मुझे गंभीरता से नहीं लिया जाता है तो क्या किया जा सकता है?

एक मसला यह भी है कि साहित्य के कई विधा हैं और हर विधा के अपने खास मायने हैं। अगर किसी विधा का जानकार यह मान बैठे कि दूसरे की विधा कमजोर या मजाक है तो इससे वह अपने साथ-साथ अपने विद्या की तौहीन भी करता है। इसका मतलब यह है कि आपके मुताबिक आज के दौर में अच्छा नहीं लिखा जा रहा है और पहले के दौर में अच्छा लिखा जाता था?

मैं किसी का नाम नहीं लूंगा, लेकिन आज भी अच्छे शायर हैं। हालांकि, अब वह दौर और हालात नहीं है। उस तरह के शब्द नहीं हैं। अगर हैं भी तो इसे समझने वालों की कमी है। जमाना ही भाग-दौड़ का है। दुख है कि बड़ी शायरी नहीं हो रही है। गद्य का बोलबाला है और फिक्शन हावी है, लेकिन अभी भी काफी संभावना है और बेहतर किया जा सकता है। इसके अलावा दूसरी बात यह भी है कि अगर अच्छा कुछ लिखा जा रहा है तो उसे मीडिया में जगह नहीं मिलती है। दरअसल नकारात्मक खबरें आज के समय में ज्यादा हावी दिखती है। इस वजह से हम लोग सिर्फ बुराईयां ही देख पा रहे हैं। जहां तक हमारे दौर की बात थी तो उस वक्त तो खराब लिखा ही नहीं जा सकता था। लोग उर्दू जुबान से ज्यादा वाकिफ होते थे। इससे भी ज्यादा गंभीर यह है कि अब बेहतर हिंदी भी खत्म होती जा रही है। कई शब्द ही प्रचलन से गायब होते जा रहे हैं। दूसरे हिंदी-उर्दू के सिमटते दायरे का असर भी आज के गजल पर पड़ा है। हमें इस बात की ओर ध्यान देना होगा कि अंग्रेजी संस्कृति हमारी शब्दों की विरासत को खत्म न कर दे।

भविष्य में आपकी क्या योजनाएं हैं?

एक लेखक, कवि क्या कर सकता है? लिखना जारी रहेगा। अभी मुजफ्फर अली नूरजहां-जहांगीर पर फिल्म बना रहे हैं। उनके लिए मैं गाना लिख रहा हूं। एक बार फिर रुपहले पर्दे के जरिये मेरे गीत लोगों तक पहुंचेगा यानी मेरे अंजुमन में आपको आना है बार-बार। मैं लगातार आप सबके लिए बेहतर से बेहतर रचना लेकर आता रहूंगा

Monday, October 4, 2010

पर्दे के पार : मुस्लिम किरदार मज़हर हसनैन ,जेएनयू नई दिल्ली

पर्दे के पार : मुस्लिम किरदार
मज़हर हसनैन ,जेएनयू नई दिल्ली
एक जमाना वो था जब मुस्लिम फिल्मों में हीरो को शायरी करते हुए और हीरोइन को पर्दे के दायरे में रहते हुए दिखाया जाता था। पुराने समय से आज तक मुस्लिम भारतीय फिल्मो में बहुत बदलाव आए हैं। हाल ही मे रिलीज फिल्म धोखा में मुस्लिम पुलिस ऑफिसर को मुंबई मे मुस्लिम आतंकवादियों के साथ जूझते हुए उसे किस तरह की परेशानी का सामना करना पड़ता है यह दिखाया गया है। पूजा भट्ट ने इस फिल्म में इस बात को बखूबी बताया है कि जब भी बम ब्लास्ट की बात होती है तो सबसे पहले मुसलमानो पर ही शक क्यों किया जाता है। 'चक दे इडिंया' मे शाहरुख खान की भूमिका अभी तक लोगो के दिलों में ताजा है, जिसमे यह दिखाया गया है कि एक मुसलमान को किस तरह उसकी बेगुनाही का सबूत देना पड़ता है। इन दोनों फिल्मो में भारतीय मुस्लिम किरदार को खुद को बेगुनाह साबित करने के लिए कड़ा संघर्ष करते हुए दिखाया गया है।
भारतीय मुसलमानों को टेलीविजन ने पिछले कुछ सालों में फिल्मो से अपेक्षाकृत बेहतर तरीके से पेश किया है, फिर बात चाहे लुक की हो, पहनावे की हो या बात करने के अंदाज की। ऐसे ही कुछ धारावाहिक है अधिकार, जन्नत, शाहीन, नरगिस, रेहनुमा, तू नसीब है किसी और का और हिना, जिसे लोगों ने बड़े पैमाने पर सराहा है। समय के साथ-साथ मुस्लिम किरदारों की भूमिका मे बहुत परिवर्तन हुआ है। 50 और 60 के दशक में बनी भारतीय मुस्लिम फिल्मों में भारत और पाकिस्तान बनने के बाद भारतीयों की स्थिति और आतंकवाद को दर्शाया जाता था। इस समय बनी फिल्मों में मुस्लिम किरदारों को जमींदार या संपन्न व्यक्ति के रूप में दिखाया जाता था। धीरे-धीरे बॉलीवुड की फिल्मों में मुस्लिम किरदारों का रोल बदला है। 70 के दशक मे बनी फिल्मों में मुस्लिम किरदारों की भूमिका बदली हुई नजर आई। कमेंटेटर सैयद अली मुजत्बा के अनुसार उन दिनो बनने वाली फिल्मो में नवाबों को अपनी दौलत लुटाते और मुजरा करने वाली हीरोइन के साथ कोठों पर दिखाया जाता था, जैसे मेरे हुजूर, पाकीजा और उमराव जान। इसी दशक में मुस्लिम हीरो को अलीगढ़ कट शेरवानी में इकबाल या मिर्जा गालिब की शायरी करते हुए देखा जाता था। उन्हीं दिनों में हिंदू फिल्मों से सिनेमा जगत में जाति या वर्ग को लेकर किसी विशेष प्रकार का वातावरण नहीं दिखाई देता था।
1960 में मुस्लिमों का एक ऐसा सफल दौर रहा है, जब भजन गाने में भी मुसलमान आगे थे। जैसे मुस्लिम हीरो यूसुफ खान (दिलीप कुमार) ने मदिंर में एक भक्तिमय गीत गाया। इस गाने के संगीतकार थे शकील बदायूनी और इसे लिखा था साहिर लुधियावनी ने। इस गाने का संगीत नौशाद अली ने दिया और इसे मोहम्मद रफी ने गाया था। मुस्लिम सिनेमा पूरी तरह कलाकारों पर ही निर्भर नहीं रहा है। मुस्लिम संप्रदाय के अलावा अन्य धर्मों के निर्देशक जैसे सोहराब मोदी, गुरू दत्त और श्याम बेनेगल ने भी पूर्वी भारत में मुस्लिम फिल्मों के नए आयाम प्रस्तुत किए। सन् 1930 से भारतीय मुस्लिम फिल्मों ने सिनेमा जगत में धूम मचाई। फिल्मों के अतिरिक्त भारतीय सिनेमा जगत में जाने-माने संगीत निर्देशकों और गीतकारों ने भी मुसलमानों पर आधारित फिल्मों का सुपर हिट संगीत दिया है। 40 और 50 के दशक में संगीतकार नौशाद ने मुस्लिम फिल्मों में उत्तर प्रदेश के लोक संगीत और नवाबी अंदाज को जिस खूबसूरती के साथ पेश किया है, उसकी धुनें आज भी लोगों को गुनगुनाते हुए देखा जा सकता है। चाहे मुस्लिम डायलॉग ओर तहजीब को आज फिल्मों में कम देखा जाता हो लेकिन उस तहजीब की मिसाल आज भी दी जाती है जो पुराने समय की मुस्लिम फिल्मों की विशेषता हुआ करती थी। मुसिलम कल्चर को अभिनय के माध्यम से नई पहचान देने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका दिलीप कुमार, मीना कुमारी, नरगिस, नसीरूद्दीन शाह, शाबाना आजमी, ने निभाइ है। उन्होंने अपने नए और अनोखे अंदाज से मुसिलम संस्कृति को जिस तरह व्यक्त किया उसकी छवि आज भी लोगों की स्मृति पटल पर कायम है। 70के दशक में मुसिलम फिल्मों ओर किरदारों का ऐक ऐसा समय आया जब चाहे मुस्लिम किरदारों ने उदू डायलॉग नहीं बोले हो लेकिन मुसलिम किरदारों ने हमेशा ईमानदारी के साथ सच्चे मुसलमान होने का सबूत दिया है। लेखक सलीम ओर जावेद ने उर्दू जबान को अपने डायलॉग में शामिल किया लेकिन लेखक और अभिनेता कादर खान के साथ विलेन के रूप में मशहूर अमजद खान ने अपनी खास स्टाइल से मुस्लिम फिल्मों को नई पहचान दी। कुली में अमिताभी बच्चन ने एक सच्च मुसलमान का किरदार बखूबी निभाया। फिर आने वाले अगले दौर में हिंदु और मुसलमानो को आपस में लड़ते हुए दिखाया गया जैसे चेतन आनंद की फिल्म हकीकत मे दिखाया गया ह। तब लोगो को एक विशेष प्रकार के नाम जैसे सकार्पियोन, मोंगेंबो और कैलेंडर आदि लुभाने लगे थे। उसके बाद बनने वाल फिल्मों में अमर, अकबर ओर एंथोनी का नाम शामिल हैं। इसी दशक में ऐसी कई फिल्में बनी जिसमे मुस्लिम हीरों को हिदु बहन से राखी बंधवातेहए या हिंदू मां से प्रसाद लेकर खाते हुए दिखाया गया। सन 1995 में मनी रत्नम द्वारा निर्देशित फिल्म बॉम्बे रिलीज हूई। इस फिल्म ने हिंदु मुसिलम के बीचों एकता की नई कड़ी को जन्म दिया। भारतीय समाज मे हिंदु मुसलमानों की छवि को नया रूप देने का श्रेय इसी फिल्म को दिया जाता है। फिल्म रोजा से जेहादी आतंकवादी और राष्ट्र भक्त के बीच प्रतिद्दिंता का पता चलता ह तो हाल के कुछ सालों में बनी फिल्म सरफरोश, गदर एक प्रेम कथा, मिशन कशमीर, बार्डर, फना ने मुस्लिमों की आधुनिक छवि को उजागर कियया है। इन फिलमों के माध्यम से यह दर्शाया गया है कि भारत मे रहने वाले मुसलमान अपने देश क प्रति उतने ही सच्चे ओर वफादार है जितना कि किसी ओर धर्म के लोग है।
सईद अख्तर मिर्जा को 90 के दशक में मुस्लिम फिल्मे बनाने ओर मुस्लिम तहजीब को अपनी फिल्मों के माध्यम से लोगों के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए जाना जाता है। सईद अख्तर मिर्जा को 90 के दशक की फिल्मों में भारतीय मुस्लिम सिनेमा को जीवित रखने के लिए याद किया जाता है। मिर्जा ने उसी दौरान टेलीसीरियल नुक्कड़ के माध्यम से मध्यम वर्गीय परिवारों और उनकी समस्याओं को उजागर किया। इसी दशक में आने वाले कुछ और मुस्लिम धारावाहिकों के माध्यम से आम मुसलमानों की परेशानियों को समझाने की कोशिश की गई। उनके द्वारा निर्देशित फिल्म सलीम लंगड़े पर मत रो एक ऐसी ही फिल्म थी जिसके माध्यम से मुंबई में रहने वाले मुसलमानों की समस्याओं को प्रस्तुत किया गया है। इस फिल्म को 1990 में बेसट हिंदी फिल्म नेशनल अवार्ड से सम्मानित किया गया।
जाने माने टेलीविजन निर्देशक संजय उपाध्याय कहते हे कि सन 1992 के बाद से मुसलमानों पर आधारित धरावाहिक के बनने में कमी आई है ओर हिंदुत्व को आधार बनाकर धारावाहिक बनने लगे है जिसमें संयुक्त परिवारों, मल्यों ओर त्योहारों को आधार बनाया गया है। सन 2000 से धारावाहिक सास बहू पर आधारित होकर अधिक बन रहे है जिसे लोगों ने बड़ी संख्या में पसदं किया है। आज हालत यह है कि पिछले त्त् सालों में कोई मुसिलम बेस्ड धारावाहिक नहीं बना है क्योकिं इस समय बनने वाले धारावाहिक पूरी तरह से महिलाओं पर आधारित है। इस समय चाहे मुसलमानों पर आधारित फि ल्मों और धारावाहिकों में पुरानी फिल्मों की तरह उर्दू अदब को भी नए रूप में आधुनिक तरीके के साथ पेश किया गया है। अब हीराइन परदे में नजर नहीं आती बल्कि वह भी आम हीरोइनों की तरह रहती है इसी तरह से उनके बोलने के अंदाज औश्र तौर तरीकों में आधुनिकता की झलक दिखाई देती हैै॥ सईद अख्तर मिर्जा क हते है कि भारतीय सिनेमा ओर भारतीय सभयता को मुस्लिम फिल्मों ओर किरदारों के बिना अधूरा कहा जाए तो गलत नहीं होगा।

Tuesday, September 14, 2010

جل رہا ہے غزہ اور عرب کے منافق یہ سب دوغلے حکمراں

غزل
غالب ایاز
صحن مقتل کی آبرو ہم تھے
قتل کے وقت باوضو ہم تھے
یہ ندی اب کسے بلاتی ہے
پہلے تو اس کی جستجو ہم تھے
اپنی بستی کو یاد ہے کہ نہیں
اسکی گلیوں کی ہاؤ ہو ہم تھے
تشنگی دے رہی تھی سیرابی
پیاس کے دیں کنار جو ہم تھے
اپنے کچھ خواب یاد آنے لگے
رات ماضی کے روبرو ہم تھے
جانے کس بات پر وہ روٹھ گئے
ہم نوالہ تھے ہم سبو ہم تھے

جل رہا ہے غزہ اور عرب کے منافق یہ سب دوغلے حکمراں
صفدر ھمدانی ۔لندن
تتلیوں کے پروں پر لکھی نظم خوں میں نہائی ہوئی
خون جو اسرائیلی درندے بہاتے رہے
موت کے رقص پر مسکراتے رہے خون اُن بے گناہوں کا جو بھوکے بچوں کی خاطر گھروں سے نکل کر گئے
اُس غزہ کی طرف
جسکی گلیوں میں برسوں سے اب موت ہے حکمراں
جس کے بچوں پہ ٹوٹا ہوا بھوک کا آسمان
جس کی ساری فضا میں دھواں ہی دھواں
اُس غزہ کی طرف
جسکے ہر ایک گھر میں کہیں نہ کہیں ایک بچہ ہے بھوکا،ڈرا اور سہما ہوا
وہ غزہ جسکی تصویر میں
ایک ننھی سی میت تھی مسجد کے ملبے پہ رکھی ہوئی
اس طرح جیسے تصویر ہو مسکراتی ہوئی
خالی آنکھوں کا نوحہ کوئی کیا لکھے
آؤ سینہ زنی کر کے اُن بیگناہوں کو رو لیں ذرا
قتل میں جنکے شامل ہیں خود اپنے ہی حکمراں
اپنے سینوں پہ کب سے اٹھائے ہوئے بے ضمیری کے بوجھ
کس طرح سے میں اس عہدِ حاضر کی کرب وبلا کی کہانی لکھوں
جس کے کردار سارے یوں لگتا ہے میرے ہی ہم نام ہیں
کوئی حُسنی مبارک
کوئی شاہ حسین ہے کوئی شاہ حسن ۔
ان میں شامل ہے اک نام ‘‘عبداللہ‘‘ بھی
یہ سبھی ایسے ناموں کی تضحیک ہیں
ان کے سینوں میں قرآن ہو گا مگر
انکے دل سب جہالت کی طرح سے تاریک ہیں
اک عجب درد اور دُکھ کا ماحول ہے
مسجدِ اقصیٰ خوں میں ہے ڈوبی ہوئی
اور فلسطین کی سرزمیں
ارضِ کرب وبلا کی طرح سرخ ہ ے
پھر یزیدانِ عصرِ رواں
ہاں تقاضہء بیعت پہ ہیں متفق
آج پھر ارضِ اہلِ فلسطین پر
حذبِ شیطان نے
اسقدر بربریت سے دھجیاں اُڑائی ہیں انسانیت کے قوانین کی
جس طرح اک نئی کربلا
ارضِ اہلِ فلسطین سے دے رہی ہے صدا
المدد یا خُدا۔المدد یا نبی۔المدد یا علی سب کے مشکل کُشا
چاروں جانب فضا میں برستی ہوئی آگ اور خون کی ایسی بارش ہے جس میں
زندگی کی کوئی ایک رمق بھی نہیں
چار سو پھیلی تاریکیوں میں کہیں اک چمک بھی نہیں
آسماں سے وہ بارود برسا کہ ساری زمیں جل گئی
جسم معصوم بچوں کے ٹکڑے ہوئے اور مٹی میں پَل بھر میں مل کر فنا ہو گئے
حذبِ شیطان نے حذبِ ایمان پر پوری طاقت سے کچھ ایسا حملہ کیا
جس پہ فرعون،نمرود،شداد سب خود بھی حیران ہیں
ابرہہ عہدِ حاضر کا اک بار پھر
آہنی،آتشیں ہاتھیوں سے
یوں غزہ پہ ہے حملہ آور ہوا
یا حسین ابنِ حیدر ترے ماننے والوں پر ہے عجب ظلم کی انتہا
ریزہ ریزہ ہوئے جسم جیسے فضا میں کہیں کھو گئے
بھوک سے بلبلاتے ہوئے کتنے معصوم ماؤں کی گودوں میں اپنا لہو پی کے ہیں سو گئے
ابرہہ عہدِ حاضر کا اس بار تنہا نہیں
ساتھ اُس کے بڑی طاقتوں کے خدایانِ شر بھی تو ہیں
ہاں مگر یہ بھی سچ ہے کہ اس بار شاید کوئی
سورئہ فیل نازل نہ ہو
اور اس کا سبب
ہم مسلمانوں کی بے حسی کے سوا اور کچھ بھی نہیں
حذبِ شیطان کے آتشیں،آہنی ہاتھیوں نے ہمارے گھروں کو تباہ کر دیا
آسماں سر سے پاؤں سے کھینچ لی ہے زمیں
شہر اُجڑے ہوئے
گرد اوڑھے ہوئے سو رہے ہیں مکیں
عالمِ کفر و شر تو ہے جاگا ہوا
حاکمینِ عرب اور عجم جیسے سوئے ہوئے
اک عجب بے حسی کی ہے یہ انتہا
حذبِ شیطان کے آتشیں،آہنی ہاتھیوں نے جنہیں ریزہ ریزہ کیا
اُن پہ ماتم کُناں
اُن پہ سینہ زناں
اُن پہ نوحہ کُناں کوئی بھی تو نہیں
بِک گئے ہیں قلم اور قلم کار خفتہ ضمیری کی میت اٹھائے ہوئے
اور مسلمان حاکم محلات میں سہم کر چھُپ گئے
ایسے حالات میں بھی ہیں اپنے حرم کو سجائے ہوئے
اے عرب اور عجم کے مسلمان حاکمو
ارضِ بغداد و لبنان کی موت کے بعد اب تمہیں
موت پر سرزمینِ ‘‘غزہ‘‘ کی مبارک کہیں
تم نے اپنے ہی دین اور تہذیب کا جس طرح سے جنازہ نکالاہے اُس پر مبارک تمہیں
تم نے اپنی شجاعت و جرآت کے زرین ابواب کو
جس طرح پارہ پارہ کیا
اُس پہ بھی تم کو تحسین ہو
اور ابد تک تمہارے ان عشرت کدوں میں اُجالا رہے
سب جہانوں میں تمہاری اس بے ضمیری کا بھی بول بالا رہے
بے ضمیری کے نشے میں مدہوش حاکمینِ عرب اور عجم کو ہمارا سلام
ایسے فرمانرواؤں کی زریں عباؤں قباؤں پہ جانیں نثار
جن کو ہے صرف اپنی حکومت سے پیار
بصرہ و کوفہ و شہرِ بغداد کے بعد اب آپ کو
ہو مبارک فلسطین بھی لُٹ چکا
اب غزہ حذبِ شیطان کی ملکیت بن گیا
اور ہر اک گھر پہ جسطرح سے موت کا راج ہ ے
اوریہ ساری فضا
خون اور بارود کی بو میں ہے جس طرح سے نہائی ہوئی
اور یہ عزت مآب حکمراں
سامراجی خداؤں کے پٹھو یہ فرمانروا
قحبہ خانوں میں مدہوش سوئے ہوئے
پاسبانِ حرم
مصلحت کی قبا کو منافق بدن پہ سجائے ہوئے
تاج اور تخت کے عشق میں بے ایماں،دوغلے حکمراں
چند دن اور ہیں
دیکھنا ہوں گے یہ سب بھی عبرت نشاں
کعبئہ دل میں اب کوئی دے تو اذاں


بچوں کے تعلیمی کیریر پر ٹی وی کے اثرات
ڈاکٹر مرضیہ عارف بھوپال
آج کے دور کو سائنس کی ترقیات اور چمک ودمک کا دور کہاجاتاہے اور اس کی ایجادات میں سب سے زیادہ اور تیزی کے ساتھ فروغ پانے والی ایجاد الیکٹرانک میڈیا( برقی ذرائع ابلاغ) ہیں جنکی ایک قسم ٹیلی ویژن ہے جو بذاتِ خود تو بری نہیں لیکن اس کا بیجا استعمال ضرور نقصا ن دہ ہے، ٹیلی ویژن کے پھیلائو کا یہ عالم ہے کہ آج ہر گھر میں اس کی پہونچ ہوگئی ہے ، کھاتے پیتے شہری ہی نہیں،جھگیوں اور مواضعات میں رہنے والے بھی ٹی وی دیکھ کر اپنی تفریح کا سامان کرلیتے ہیں خاص طور پر جب سے سیٹلائٹ چینل اور کیبل ٹی وی کا چلن بڑھا ہے توٹی وی کا دائرہ بڑھتا جارہا ہے، اب رات ودن ٢٤ گھنٹے اس کے مختلف پروگرام الگ الگ چینلوں میں دکھائے جاتے ہیں اور گھرکے سبھی ممبر چھوٹے ہوں یابڑے، بچے ہوں یا بوڑھے، ان کو دیکھتے ہیں اورجب کوئی مقبول پروگرام آتا ہے تو گھرکے لوگ تمام کام وکاج چھوڑ کر ٹی وی اسکریٹرین کے سامنے بیٹھ جاتے ہیں یہاں تک کہ ضروری کاموں کی بھی انہیں پرواہ نہیں ہوتی۔
گھر کے بڑے اور ذمہ دار تو پھر بھی اپنے ضروری کاموں کو انجام دیکر ٹی وی کی طرف رخ کرتے ہیں یا اپنے پسندیدہ پروگرام دیکھ کر کام کاج میں مصروف ہوجاتے ہیں لیکن بچوں کے بارے میںیہ نہیں کہاجاسکتا کیونکہ ان کے ذہن خام ہوتے ہیں، اپنے لئے کیا اچھا ہے اور کیا برا اس کا انہیں زیادہ لحاظ نہیں رہتا اس لئے ان کی نگرانی نہ کی جائے تو وہ اپنا زیادہ وقت ٹی وی اسکرین کے سامنے گزار کر ضائع کردیتے ہیں ، پڑھنے لکھنے کی ذمہ داری سے منہ چراتے ہیں،تفریحی پروگرام دیکھنے میں ہی وقت نہیں لگاتے بلکہ فلر کے طور پر اس کے درمیان میں جو اشتہارات دکھائے جاتے ہیں ان کو بھی نظریںگڑا کر دیکھتے ہیں، ان اشتہارات کا بچوں کی عام نفسیات پر برا اثر پڑرہا ہے ایک سروے کے مطابق اونچے طبقہ کے ٦٨ئ٤٧ فیصد بچے، درمیانی طبقہ کے ٢٣ئ٦٢ فیصد بچے اور نچلے طبقہ کے ٥٥ئ٥٥ فیصد بچے روزانہ تین سے چار گھنٹے ٹی وی دیکھتے ہیں، ایک دوسرے سروے کے مطابق ان میں سے ٩٠ئ٦٣ فیصد بچوں کو ٹی وی کے اصل پروگراموں کے مقابلہ میں اشتہار دیکھنے سے زیادہ دلچسپی ہوتی ہے ، اس کا احساس مختلف استعمال کی اشیاء بنانے والے صنعتی اداروں کو بھی ہوگیا ہے اس لئے وہ اپنی مصنوعات کو بازار میں مقبول بنانے کے لئے خاص طور سے ایسے اشتہارا تیار کراتے ہیں جو بھولے بھالے دل ودماغ پر قبضہ کرسکیں کیونکہ انہیں وہ اپنے گاہکوں کی نظر سے دیکھتے ہیں ، ان اشتہارات کا سب سے زیادہ اثر بچوں کے اخلاق وکردار پر پڑرہاہے وہ اشتہارات کی نقل میں لکھنے و پڑھنے میں دل لگانے کے بجائے کھیل وکود اور کرتب بازی پر زیادہ دھیان دینے لگے ہیں، ان کی نظر میں اچھی ماں وہ ہے جو ان کی ہر خواہش کے آگے سر جھکادے اور شاندار باپ وہ ہے جو ان کی کسی فرمائش پر انکار نہ کرے۔
ہم کہتے تو یہ ہیں کہ بچے ملک وسماج کا مستقبل ہیں لیکن اس مستقبل کی تعمیر وتشکیل پر توجہ نہیں دیتے، جو بچے خیالی تصورات و بے جا خواہشات میں مبتلاء ہو کر اپنا وقت ضائع کرتے ہیںبھلا وہ کیسے ہمارے مستقبل کا اثاثہ ثابت ہوسکتے ہیں، ہم مشرق کے لوگ مغرب اور اس کی ترقیات کو للچائی ہوئی نظروں سے دیکھ کر ان کی نقل کرنا تو چاہتے ہیں لیکن مغربی ملکوں کے تجربات سے فائدہ اٹھانے پر دھیان نہیں دیتے، ٹیلی ویژن کے بچوں پر مضر اثرات کے شکار ہم سے کافی پہلے مغربی ممالک ہوچکے ہیں، اس لئے انہوں نے اس کا منصوبہ بندطریقہ سے مقابلہ بھی کیاہے، ضرورت اس بات کی ہے کہ مغرب کے تجربات کو ہمارے یہاں بھی پیش نظر رکھایاجائے اس سلسلے کی روشن مثال سویڈن اور ناروے وغیرہ نے پیش کی ہے جہاں بارہ سال سے کم عمر کے بچوں کو سامنے رکھ کر بنائے گئے اشتہارات پر روک لگادی گئی ہے، اسی طرح امریکہ میں بچوں کے ٹی وی دیکھنے کی حوصلہ شکنی کی جارہی ہے ، ایک جائزہ کے مطابق ١٩٨٠ء کے بعد سے بچوں کی ٹی وی بینی میں بیس فیصد تک کمی آگئی ہے۔ مغربی ملکوں میں سب سے زیادہ تشویش اس بات کولیکر ظاہر کی جارہی ہے کہ ٹی وی پروگرام بچوں کی تعلیم کو بہت متاثر کررہے ہیں، یوروپ وامریکہ کے ماہرین تعلیمات، نفسیات اور عمرانیات کی طرف سے جب اس پر خصوصی تحقیق کی گئی تو انہیں اندازہ ہوا کہ ٹی وی اسکرین کے سامنے زیادہ وقت صرف کرنے والے بچوں کی تعلیم ہی برباد نہیںہوتی، والدین سے ان کے تعلقات میںبھی فرق آتاہے، بچے اور ان کے ماں باپ کے درمیان کا فاصلہ بڑھ گیا ہے، پہلے بچے رات کو سوتے وقت اپنے بڑے بوڑھوں کے ساتھ ہنستے بولتے اور ان سے کہانیاں وقصے سنتے تھے، کئی وہ باتیں پوچھ لیتے تھے جو انہیں معلوم نہیںہوتیں، ان مواقع سے بچوں کو سیکھنے اور سمجھنے میںکافی مدد ملتی ، ان کا دماغ سوچنے اور عمل کرنے کے قابل بنتاتھا، اب والدین اور بچوں کا باہم مل بیٹھنا ٹی وی کی نذر ہوگیا ہے اور بچوں کے سیکھنے کے مواقع پر ٹی وی کی تفریحات غالب آگئی ہیں۔
پہلے بچے جو وقت اپنے اسکول کے علاوہ گھروں میںپڑھنے لکھنے اور اسکول کا ہوم ورک کرنے میںگزارتے تھے اب وہ ٹی وی دیکھ کر ضائع کررہے ہیں، نرسری اور پرائمری اسکولوں کے ٹیچروں نے ایسے بچوں کی عادت واطوار کا مشاہدہ کیا تو انہیں اندازہ ہوا کہ پہلے بچوں میںخیال افروزی یعنی سوچنے وسمجھنے کی صلاحیت زیادہ تھی، وہ اپنے لئے کھیل خود ایجاد کرلیاکرتے تھے، کھلونے اپنے ہاتھ سے بناتے تھے، جب سے ٹی وی ان پر حاوی ہوا ہے وہ سوچنے اور اختراع کرنے کے بجائے وہی کرنے لگے ہیں جو ٹی وی ان سے کہتا ہے یا جو وہ ٹی وی پر دوسروں کو کرتے ہوئے دیکھتے ہیں۔ بچوں میں محنت و کوشش کی عادت بھی کم ہورہی ہے، جب وہ آدھے گھنٹے کے ٹی وی پروگرام میں بڑے سے بڑے مسئلہ کا اطمینان بخش حل نکلتا ہوا دیکھ لیتے ہیںتو اس سے ان میںکچھ کرنے اور آگے بڑھنے کے بجائے تساہلی پیداہوتی ہے جو ان کی جسمانی وذہنی دونوں صحتوں کو نقصان پہونچا رہی ہے اور اس کے اثرات ان کے تعلیمی کیریر پر بھی پڑرہے ہیں۔
آپ کہیں گے کہ میں یہاں ٹیلی ویژن کے صرف منفی پہلو گنا رہی ہوں، بچوں کی تخلیقی وتعلیمی صلاحیتوں کو ٹی وی سے جو نقصان پہونچ رہا ہے اسی پر میرا سارا زور ہے، جی نہیں ٹی وی کے کچھ مثبت پہلو بھی ہیں اور ان میں سب سے اہم یہ ہے کہ بچہ ٹی وی پروگرام دیکھ کر دنیا کے حالات وکوائف سے واقف ہوجاتا ہے، اس کی معلومات کے ساتھ ساتھ بولنے کی صلاحیت بڑھتی ہے، اس کے الفاظ کے ذخیرہ میں اضافہ ہوجاتاہے ، اگر وہ ٹی وی کے تعلیمی وتربیتی پروگراموں میں دلچسپی لے تو پڑھنے لکھنے میں اس کے لئے یہ مددگار ثابت ہوسکتے ہیں لیکن ٹی وی کے تعمیری نتائج کے مقابلہ میں نقصان دہ پہلو کچھ زیادہ ہیں اس لئے بہتر یہ ہوگا کہ ٹی وی کو بچوں کے لئے قطعی ممنوع قرار دینے کے بجائے اس کا استعمال محدود کردیا جائے، وہ اپنے فرصت کے لمحات میںاصلاحی سبق آموز اور صاف ستھرے تفریحی پروگرام دیکھیں ، سرپرستوں کی یہ ذمہ داری ہے کہ وہ ٹی وی کو بچوں پر حاوی نہ ہونے دیں، خود ساتھ بیٹھ کر اچھے ٹی وی پروگرام بچوں کو دکھائیں اور ان کے جو منفی پہلو ہو اس کے نقصانات بھی بچوں پر واضح کردیں، خاص طور پر بچوں کے مطالعہ یا اسکول کا ہوم ورک کرنے اور اسی طرح کے دوسرے ضروری کاموں کا جو وقت ہے اس میں بچوں سے ٹی وی کو دور رکھیں۔
یاد رکھئے! جن گھروں میںٹیلی ویژن گھنٹوں چلتا رہتا ہے تو صوتی آلودگی سے بچوں کی سماعت پر اس کا برا اثر پڑسکتا ہے، امریکہ میں ٣٠ سے ٣٥ فیصد بچے اسی لئے بہرے پن کے شکار ہوگئے ہیں،کتنے ہی بچوں کی بینائی خراب ہوگئی ہے اور انہیں کم عمری میںعینک کا سہارا لینا پڑا ہے، حقیقت یہ ہے کہ بچے کچی مٹی کی طرح ہوتے ہیں جس سانچے میںچاہیں، آپ انہیں ڈھال سکتے ہیں مگر اس کے لئے ان کے بڑوں کو بھی تھوڑا بدلنا پڑے گا، تبھی آپ ان کی صحیح نگرانی اور رہبری کرسکتے ہیں، اس کے لئے ضروری ہے کہ اپنی مشغول زندگی کا کچھ وقت بچوں کے لئے فارغ کریں اور ان کو ساتھ بٹھاکر ایسے ٹی وی پروگرام دیکھیں جو معیاری ہوں، اسی طرح بچوں کے تعلیمی کیریر پر ٹی وی کے مضر اثرات کا مقابلہ کرکے اس کی خوبیوں سے فائدہ اٹھایاجاسکتا ہے۔

किसने लिखा - "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.." ?

किसने लिखा - "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.." ?
जैसा कि अक्सर होता है कि इतिहास के अनछुए और अनदेखे पहलुओं को आज की रौशनी में देखने की कोशिशों पर सवाल उठ ही जाते हैं। आज़ादी के सिपहसालार हसरत मोहानी के बारे में जो दो कड़ियां मैंने पिछले दिनों लिखीं, उनका संपादित स्वरूप अख़बार "नई दुनिया" ने शनिवार के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित किया है। इस लेख को ज़ाहिर है देश के तमाम प्रदेशों में पढ़ा गया और इस पर एक प्रतिक्रिया जनाब शहरोज़ साहब की मुझे मिली हैं। शहरोज़ साहब लिखते हैं -
"लेकिन पढ़कर चकित हुआ कि एक टी वी का पत्रकार जिसे हसरत मोहानी से अतिरिक्त लगाव है और खुद को लेखक उनका अध्येता बता रहा है..लेकिन एक इतनी बड़ी चुक हो गयी.सरफरोशी की तमन्ना..जैसी ग़ज़ल का रचयिता आपने अतिरेक की हद में मौलाना हसरत मुहानी को बतला दिया. जबकि दर हकिअत इसे बिस्मिल अज़ीमाबादी ने लिखा था.अभी कुछ रोज़ पूर्व मैं ने अपने ब्लॉग रचना-संसारपर भी दर्ज किया था।" अब पता नहीं शहरोज़ साहब को मेरे अतीत में टीवी पत्रकार भी होने के नाते मेरी मेहनत पर शक़ हुआ या मेरी नासमझी का यकीन। उन्होंने आज़ादी के मशहूर तराने "सरफरोशी की तमन्ना ..." का रचयिता हसरत मोहानी को बताए जाने को मेरा अतिरेक ही नहीं बल्कि अतिरेक ही हद मान लिया। ख़ैर, शहरोज़ भाई की भाषा पर मुझे दिक्कत नहीं क्योंकि जो कुछ उन्होंने पढ़ा वो उनकी अपनी खोजबीन पर सवाल लगाता था, सो उनका आपे से बाहर होना लाजिमी है। उनकी टिप्पणी मैंने अपने ब्लॉग पर बिना किसी संपादन के हू ब हू लगा दी है। साथ ही, उनके इस एतराज़ पर अपनी तरफ से जानकारी भी दे दी।
लेकिन, मुझे लगता रहा कि बात को और साफ होना चाहिए और दूसरे लोगों को भी इसमें अपनी अपनी राय देनी चाहिए। हिंदुस्तान बहुत बड़ा देश हैं और आज हम लोगों के पास इतिहास को जानने के अगर कोई तरीके हैं वो या तो अतीत में लिखी गई किताबें या फिर गिनती के जानकारों से बातचीत। हसरत मोहानी पर डॉक्यूमेंट्री बनाने से पहले मैंने और मेरे सहयोगियों ने कोई छह महीने इस बारे में रिसर्च की। इसके लिए हम हर उस जगह गए जहां से हसरत मोहानी का ज़रा सा ताल्लुक था, मसलन फतेहपुर ज़िले का हसवा, जहां हसरत मोहानी सिर्फ मैट्रिक पढ़ने गए थे। नेशनल आर्काइव की ख़ाक छानी गई, जामिया मिलिया यूनीवर्सिटी की लाइब्रेरी खंगाली गई। अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी के अलावा इस बाबत भारत सरकार की तरफ से छपी किताबें भी पढ़ी गईं।
इसी दौरान हम लोगों को एक किताब मिली, जिसे लिखा है उर्दू की मशहूर हस्ती जनाब मुज़फ्फर हनफी साहब ने, जिनके बारे में शहरोज़ साहब का कहना है - "मुज़फ्फर हनफी साहब से भी चुक हुई.समकालीन सूचनाओं के आधार पर ही उन्होंने लिख मारा.बिना तहकीक़ किये. ढेरों विद्वानों ने ढेरों भूलें की हैं जिसका खमयाज़ा हम जैसे क़लम घिस्सुओं को भुगतना पड़ रहा है."
पहली अप्रैल 1936 को पैदा हुए हनफी साहब की गिनती देश में उर्दू अदब के चंद मशहूर लोगों में होती है। और उनकी क़लम पर शक़ करने की कम से कम मुझमें तो हिम्मत नहीं है। उन्होंने किस्से लिखे, कहानियां लिखीं, शेरो-शायरी भी लिखी। इसके अलावा पुराने ज़माने के लोगों के बारे में उनकी रिसर्च भी काफी लोगों ने पढ़ी। उनकी रिसर्च की भारत सरकार भी कायल रही और तभी नेशनल काउंसिल फॉर प्रमोशन ऑफ उर्दू ने उनके रिसर्च वर्क का अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं में अनुवाद भी कराया। हनफी साहब ने हसरत मोहानी पर भी एक किताब तमाम रिसर्च के बाद लिखी, जिसे नेशनल बुक ट्रस्ट ने देश की दूसरी भाषाओं में भी प्रकाशित किया है। इसी किताब के पेज नंबर 27 पर छठे अध्याय में हनफी साहब एक और मशहूर हस्ती गोपी नाथ अमन के हवाले से लिखते हैं कि आज़ादी के मशहूर तराने "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाजू ए क़ातिल में है" को अक्सर बिस्मिल से जोड़कर देखा जाता है, दरअसल ये बिस्मिल ने नहीं लिखा बल्कि राष्ट्रीय आंदोलन को ये मोहानी का तोहफा था।
वैसे शहरोज़ साहब की काबिलियत पर भी शक़ की गुंजाइश कम है। कल को उनका रिसर्च वर्क भी इसी तरह शाया हो, ये मेरी दुआ है। क्योंकि विष्णुचंद्र शर्मा जी कहते हैं - "मुझे लगता है ,शहरोज़ पर बात करने के लिए , सर्वप्रथम उसके समूचे रचनाकर्म पर काम करने की ज़रुरत है ,जैसा कभी भगवतीचरण वर्मा पर नीलाभ ने किया था।" (शहरोज़ जी के ब्लॉग पर उनके ही द्वारा शर्मा जी के हवाला देते हुए लिखा गया अपना परिचय) शहरोज़ साहब अगर हनफी साहब की रिसर्च को झुठलाना चाहें तो इसके लिए वो आज़ाद हैं। वैसे वो इसके लिए खुदा बख्श लाइब्रेरी में बिस्मिल अज़ीमाबादी की हैडराइटिंग में रखे इस ग़ज़ल के पहले मतन का हवाला देते हैं। वो ये भी कहते हैं कि ये ग़ज़ल चूंकि कोर्स में शामिल है, लिहाजा इस पर विवाद की गुंजाइश नहीं है।
वैसे मुझे भी अपनी रिसर्च के दौरान नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इंडिया की ही एक और क़िताब "स्वतंत्रता आंदोलन के गीत " पढ़ने को मिली जिसमें इस तराने के साथ राम प्रसाद बिस्मिल का नाम लिखा है। लेकिन, मैं इस बारे में जिस निष्कर्ष पर पहुंचा वो मोहानी साहब के घर वालों से मुलाक़ात और दूसरे इतिहासकारों के नज़रिए से वाकिफ़ होने के बाद ही पहुंचा। फिर भी, मैं चाहूंगा कि इस बात पर और रिसर्च हो क्योंकि फिल्मकार या पत्रकार किसी भी विषय का संपूर्ण अध्येता कम ही होता है। वो तो संवादवाहक है, मॉस कम्यूनिकेशन का एक ज़रिया। शहरोज़ साहब का ये कहना कि मुझे मोहानी साहब से अतिरिक्त लगाव है, भी सिर माथे। मोहानी साहब ने जिस धरती पर जन्म लिया, उसी ज़िले की मेरी भी पैदाइश है। जैसे कि बिस्मिल अज़ीमाबादी और शहरोज़ साहब की पैदाइश एक ही जगह की है।
मोहानी साहब तो ख़ैर एक शुरुआत है, मेरी डॉक्यूमेंट्री सीरीज़ - ताकि सनद रहे - में अभी ऐसे और तमाम नाम शामिल हैं। और, जब नई लीक खींचने की कोशिश होगी, तो संवाद और विवाद तो उठेंगे ही। वैसे, मराठी साहित्य भी "सरफरोशी की तमन्ना.." का रचयिता हसरत

Sunday, September 12, 2010

मंटो की कलम उगलती थी आग


मंटो की कलम उगलती थी आग


सआदत हसन मंटो

उर्दू अफसानानिगारों का जब भी जिक्र होता है, सआदत हसन मंटो की धुंधली यादें ताजा हो जाती हैं। साथ ही उनकी मशहूर कहानी टोबा टेक सिंहलोगों के जहन में चित्रित हो उठती है। हालांकि उनकी कलम के तीखे तेवरों और नग्न सच्चाइयों को लोगों ने अश्लीलता का नाम भी दिया, लेकिन इस कहानीकार की कलम कभी रुकी नहीं।

जन्मदिन 11 मई पर विशेष

उर्दू अफसानानिगारी के चार स्तम्भों (कृशन चन्दर, राजिन्दर बेदी और अस्मत चुगतई) में से एक सआदत हसन मंटो का शुमार ऐसे साहित्यकारों में किया जाता है, जिनकी कलम ने अपने वक्त से आगे के ऐसे अफसाने लिख डाले, जिनकी गहराई को समझने की दुनिया आज भी कोशिश कर रही है।

नग्न सच्चाइयों ने नजरें फेरने के लिये उसे अश्लीलता का नाम देने वाली दुनिया को सच की बदनुमा तस्वीर भी देखने की दुस्साहसिक ढंग से प्रेरणा दे गए मंटो ने बेहूदगी फैलाने के कई मुकदमों का सामना किया। लेकिन यह साहित्यकार न कभी रुका और न ही थका।

शाहकार वक्त के मोहताज नहीं होते। मंटो ने इस बात को अक्षरश: सही साबित करते हुए महज 43 बरस की जिंदगी में उर्दू साहित्य को बहुत समृद्ध किया।

बीसवीं सदी के मध्य में ही दुनिया को अलविदा कह गए इस दूरदृष्टा साहित्यकार के विचारों की गहराई का अंदाजा लगाना आज भी आसान नहीं लगता।

उर्दू अफसानानिगार मुशर्रफ आलम जौकी ने कहा कि दुनिया अब धीरे-धीरे मंटो को समझ रही है और उन पर भारत और पाकिस्तान में बहुत काम हो रहा है लेकिन ऐसा लगता है कि मंटो को पूरी तरह समझ पाने के लिये 100 साल भी कम हैं।

जौकी के मुताबिक शुरुआत में मंटो को दंगों, फिरकावाराना वारदात और वेश्याओं पर कहानियां लिखने वाला सामान्य सा साहित्यकार माना गया था, लेकिन दरअसल मंटो की कहानियां अपने अंत के साथ खत्म नहीं होती हैं। वे अपने पीछे इंसान को झकझोर देने वाली सच्चाइयां छोड़ जाती हैं। उनकी सपाट बयानी वाली कहानियां फिक्र के आसमान को छू लेती हैं।

पढ़ने वालों को अपने अफसानों से चौंकाने के नायाब फन के मालिक मंटो ने उर्दू अदब को ठंडा गोश्त’, ‘नंगी आवाजें’, ‘खोल दोऔर काली शलवार’, जैसी महान कृतियां दीं, लेकिन जब वे लिखी गईं तो उन्हें महज अश्लीलतापरोसते दस्तावेज के अलावा और कुछ नहीं कहा गया। दरअसल वे कहानियां जिंदगी की उन पुरपेंच गहरी सच्चाइयों पर पड़े पर्दों को नोंच फेंकने की कोशिश थीं, जिनसे दुनिया हमेशा से नजर बचाती रही थी।

मंटो के कलम की मजबूती ही थी कि वर्ष 1947 से पहले तीन बार भारत में और फिर पाकिस्तान बनने के बाद वहां अश्लीलता फैलाने के तीन मुकदमे चलने के बावजूद वह कभी मुजरिम नहीं ठहराए जा सके।

मंटो को उर्दू अफसानानिगारी के अन्य स्तम्भों कृशन चन्दर, राजिन्दर बेदी और अस्मत चुगतई से अलग लेखक बताते हुए जौकी ने कहा कि उनकी राय में मंटो में पढ़ने वाले को झकझोरने की खूबी कहीं ज्यादा थी और हंसी-हंसी में इंसान की नब्ज़ पर हाथ रख देने के मंटो के फन की दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती। मंटो के बगैर उर्दू अफ़साना निगारी का इतिहास अधूरा है।

मंटो ने देश के बंटवारे के वक्त अपनी पत्नी की जिद पर पाकिस्तान चले जाने की टीस को अपनी कहानी टोबा टेक सिंहमें बड़ी शिद्दत से बयान किया है। यह कहानी उर्दू अफसानों के समुद्र का बेशकीमत मोती समझी जाती हैं।

मंटो ने 43 साल के छोटे से जीवन में रेडियो की नौकरी की, फिल्मों की पटकथा लिखी, पत्र पत्रिकाओं का संपादन किया तथा कहानियां, उपन्यास, निबंध और नाटक लिखे। मंटो ने जिस तरह से अपनी रचनाओं में कभी कोई समझौता नहीं किया, ठीक उसी तरह उन्होंने अपना जीवन भी अपनी शर्तों पर जिया।

गजब का था। उनके अफ़सानों को एक बार पढ़ना शुरू किया जाये तो उसे बीच में नहीं छोड़ा जा सकता।

सआदत हसन मंटो का जन्म 11 मई 1912 को पंजाब के लुधियाना में हुआ था। स्कूल में शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही उनमें साहित्य के प्रति रुचि पैदा हो गई थी। वर्ष 1936 में उनका पहला कहानी संग्रह आतिश पारेप्रकाशित हुआ था।

उर्दू अफ़सानानिगारी को नई शैली और बिल्कुल अलग मिजाज देने वाले इस महान कहानीकार ने 18 जनवरी 1955 को दुनिया को अलविदा कह दिया।

1954 की पुरानी भूमिका : आगरा बाजार हबीब तनवीर

1954 की पुरानी भूमिका : आगरा बाजार

हबीब तनवीर

नाज उठाने में जंफाएँ तो उठाएँ लेकिन

लुत्फ भी ऐसा उठाया है कि जी जाने है। -नाजीर

अत्हर परवो का टेलीफोन आया कि 14 मार्च को जामिया मिल्लिया में अंजुमन तरक्की पसंद मसन्नेफीन जामिया मिल्लिया की तरफ से यौमे नजीर मनाया जा रहा है, क्या ही अच्छा हो कि मैं इस सिलसिले में नजीर पर एक ड्रामा तैयार करवा दूं।

नजीर के कलाम से दिलचस्पी तो मुद्दत से रही है, मगर नजीर पर ड्रामा लिखने का कभी ख्याल न आया था। 'इंशा' के बारे में अलबत्ता सोचा करता था कि उर्दू के इस बाकमाल मगर नामुराद शाएर के कलाम और जिंदगी पर एक हुत रंगीन ट्रेजेडी लिखी जा सकती है।

नजीर की नज्मों को जरा गौर से देखा तो हमारी मुआशरत की बहुत-सी तरसवीरें निगाह के सामने खिंच आई जिनकी रंगीनी 'इंशा' क्या उर्दू के बड़े से बड़े शायर के कलाम को फीका कर देती है। उसकी नज्मों के आहंग में रजाइयत और अफादियत की गूंज सुनाई दी और मैं इस ख्याल से फड़क गया कि नजीर की आवाज उर्दू के हर शायर से अलग है, मगर इंसानियत की आवाज है। और ये हमागीरी किसी और को नसीब न हुई।

नजीर से मुताल्लिक जितनी किताबें मिल सकती थीं वो किताबें संभालीं और एक गोशे में बैठ गया। मुताले के दौरान नजीर के कलाम से मेरी दिलचस्पी तो जरूर बढ़ती चली गई लेकिन साथ ही ड्रामा लिखने के सिलसिले में मेरी उलझनें भी बढ़ गई। मैं ड्रामे के लिए कशमकश () की तलाश में था, नजीर के हालाते जिंदगी मालूम कर रहा था। और उनके हालात की दसदीक व तहकीक के लिए सनदें ढूंढ रहा था कि मुझे यकायक उर्दू शाइरी की तारीख का सबसे बड़ा ड्रामा मिल गया।

आम तौर से ये माना जाता है कि 'मीर' और 'गालिब' के जमानों के दरमियान जो दौर गुजरा है उसने कोई ऐसा शायर पैदा न किया जो 'मीर' और 'गालिब' का हम पल्ला हो। 'गालिब' के दौर में शोरा अपनी रवायतों को याद करते तो एक आवाज होकर बस यही कहते कि - ''सुनते हैं अगले जमाने में कोई 'मीर' भी था।'' 'गालिब' के बाद निगाह सीधी 'इकबाल' के साथ कुछ 'हाली' की याद ताजा हो जाती है। ये हस्तियां हमारी शाइरी की तारीख में संगे-मील की हैसियत रखती हैं जिनकी शख्सियत हमारी सारी तवाोोह जज्ब कर लेती है। हालांकि हकीकत ये है कि 'हाली', 'इकबाल' और 'इकबाल' के बाद 'जोश' और जदीद शोरा का कलाम सबसे ज्यादा उर्दू के उस फकीर शाएर का मरहूने-मिन्नत है, जो हमारे अदब ने 'मीर' के बाद और 'गालिब' से पहले पैदा किया और जिसका जिक्र उर्दू अदब की तारीख में नहीं मिलता। और अगर मिलता है तो यूं कि जैसे लिखने वाला 'नजीर' का जिक्र करके उसकी जात पर बहुत बड़ा एहसान कर रहा है।

गौर से देखा जाए तो नजीर के कलाम और अंदाजे-बयान में आज भी इतना तनौव्वो और इतनीगुंजाइश है कि उससे जदीद शाइरी बहुत कुछसीख सकती है। हमारी शाइरी पर हैयत और मौजू के हजार इनक्लाबात के बावजूद आज तक गजल का बहुत गहरा असर पाया जाता है, और हमारी उर्दू गजल की फिजा ज्यादातर ईरानी मुआशरत की परवरदा है। उन पुरानी तरकीबों और इसतेआरो, उन पिटे हुए लफ्जों और मुहावरों से असरेहाजिर के नगदमें बोझल हैं। मगर अवाम की जबान और हिंदुस्तानी लहजे में बात करने का सलीका आज भी 'नजीर' अकबराबादी से सीखा जा सकता है। 'नजीर' उर्दू का सबसे ज्यादा 'हिंदुस्तानी' शाएर था। जो हैसियत उर्दू नाविलिनिगार रतननाथ शरशार और प्रेमचंद की है वही उर्दू शाइरी में 'नजीर' अकबराबादी की।

'नजीर' लगभग एक सौ साल ज्यादा रहा। उसकी जिंदगी में उसे किसी अदीब ने न पूझा, मरने के कमोबेश ेक सौ साल बाद तक उसका नाम किसी नक्काद की जबान पर न आयाय मगर दो सौ साल तक अवाम ने नजीर को जिंदा रखा। उसके अशआर और उसकी नज्में सीना--सीना आज की नस्ल तक पहुंचा दिए गए, अवाम ने अपनी 'अमानत' की बड़ी जिम्मेदारी से हिफाजत की और हिंदुस्तान के शहर, देहात और कसबे आज भी नजीर के नगमों से गूंज रहे हैं। दरवेश और कदागर शुमाल से लेकर जुनूब तक आज भी नजीर की नज्में गली-कूचों में गाते फिर रहे हैं। ये 'नजीर' की जिंदगी और कलाम का सबसे बड़ा ड्रामा है और हमारी तारीखे-अदब का सबसे दिलचस्प बाब।

ड्रामे के अंदर कलामे-नजीर के उस पहलू को उजागर करना चाहता था और उसी को मैंने अपना मौजू बनाया।

नजीर के हालाते-जिंदगी मालूम करने के सिलसिले में जो दुश्वारियां पेश आई हैं खुद ये दुश्वारियां ड्रामे के हक में रहमत बन गई ड्रामे के मौजू और तकनीक के मुकर्रर करने में उनका भी हाथ है।

नजीर की सवानेह की छानबीन करने के सिलसिले में लिखने वालों ने अपनी जेहानत से काम लेकर बड़ी हाशिया आराइयां की हैं, और जितनी तफसीलात हमें किताबों के जरिए नजीर की जिंदगी के बारे में मालूम हैं उनमें से अकसर शुब्हे से खाली नहीं, यहां तक कि तारीखे-पैदाइश के बारे में भी इख्तेलाफे-राय पाया जाता है। अगर कोई बात हमें वाजेह तौर से मालूम है तो बस ये कि अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के उस अजीमुश्शान शाएर को मोतकद्देमीन ने शाएर ही न माना, मुबतजिल गो कह दिया। लेकिन अवाम ने उसके कलाम को सर आंखों पर उठाया और यही हकीकत हमारे लिए सबसे ज्यादा अहमियत रखती है।

बस तो फिर ड्रामा हो या मोकाला, नजीर के बारे में बात कहनेकी यही है, मगर ड्रामे के ्ंदर ेय बात किस ढंग से कही जाएगी, ये मेरे लिए एक मसला बन गया, इस दुश्वारी का असर ड्रामे के रूप पर बराहे-रास्त पड़ा। मैंने पहले तो ये सोचा था कि नजीर की जिंदगी के मुख्तलिफ पहलू ड्रामे में उजागर करूं या उसकी जिंदगी के किसी एक गोशे पर रौशनी डालूं और एक छोटा-सा नाटक तैयार कर लूं। मगर इसकेबारे में तसदीक से मैं क्या कह सकता था, और अगर कह भी लेता, तो कहने की बात तो ये न थी।

मुझे तो ये कहना था कि नजीर की अवाम दोस्ती ने उसे हयाते-दवाम बख्श दी है और 'नजीर' फकीर और दरवेशों में आज तक मकबूल है। बस 'नजीर' की नज्मों ही में मुझे ड्रामे के लिए एक जदीद तर्ज का फकीरों का 'कोरस' मिल गया जो ड्रामे की बुनियादी कड़ी है।

मैं ये कहना चाहता था कि उस जमाने के पढ़े-लिखे मुतवस्सित तब्के ने नजीर की इनसान की हैसियत से तो तरीफ की, लेकिन बहैसियत शोर उसके नजरअंदाज किया। अलबत्ता छोटे काम करने वाले और कारीगरों में वो मकबूल रहा। बस मुझे कुतुबफरोश और पतंगवाले किरदार मिल गए, जिनके बल पर ड्रामा आगे बढ़ता है और जिनकी दुकानें बाजार के दो अहम तरीन मरकज हैं।

मैंने पढ़ रखा था कि नजीर राह चलते नज्में कहा करते, और छोटे पेशे वाले लोग और भिखारी अक्सर उनसे नज्मों की फरमाइश करते, और वे उनकी बात कभी न टालते। ख्वाह ये अफराना हो या हकीकत, मुझे ये बात बहुत अच्छी लगी, इससे मेरे ड्रामे को बहुत मदद मिल रही थी, और कलामे नजीर पढ़ने के बाद मैं इस पर ईमान लाने के लिए बिल्कुल तैयार था। चुनांचे ककड़ीवाले के किरदार ने ड्रामे के हीरो की शक्ल इख्तेयार कर ली, और यहीं से मुझे अपने प्लॉट की बुनियाद भी मिल गई और ड्रामे का मंजर भी और इसका उनवान भी।

प्लॉट के ऐतबार से ड्रामा अफसानवी हैसियत रखता है, कहानी मनगढ़ंत है, और बहुत छोटी और सीधी-सादी। मैंने जोर इस बात पर दिया है कि 'खेल' को उस रूप में पेश करूं कि जो बुनियादी बात नजीर के बारे में कहना चाहता हूं वो ठीक-ठीक और दिलचस्पी के साथ कह पाऊं।

मैं उसकी नज्मों की तारीखी पसमंजर में देखने की कोशिश कर रहा था मैंने देखा कि उन नज्मों की बिना पर हमारी उस जमाने की पूरी मुआशरती तारीख मुरतब की जा सकती है। इस कलाम को उस अहद के सियासी और समाजी पसमंजर से हटकर समझना दुश्वार है, और इस दुश्वारी ने एक नए किरदार की तशकील की। और मदारी के मुकालमे मेरे हाथ आए।

हमारी अदबी तारीखों में या तो मुल्क के सियासी और समाजी हालात सिरे से मिलते ही नहीं या अगर मिलते हैं तो बराए नाम। और हमारी सियासी तारीखों में अदबी और मुआशरती हालात का पता नहीं चलता।हालांकि इन दोनों को एक-दूसरे से अलग करके देखना गलत और गुमराह कुन है। चुनांचे मुझे दोनों किस्म की किताबों को सामने रखकर और कागज पर तारीखें जोड़-जोड़ हिसाब लगाना पड़ा कि हमारी तारीखे-अदब और सियासी तारीख में क्या रब्त है। इस जद्दोजेहद का नतीजा बहुत से मुकालमों के इलावा घोड़ों के सौदागर का किरदार है और इसी काविश ने ड्रामे का जमाना मुकर्रर करने में बहुत मदद पहुंचाई।

ड्रामे का जमाना लगभग 1810 . है। अगर आम राय के मुताबिक 1735 . नजीर की तारीख पैदाइश मान ली जाए तो इस जमाने में नजीर की उम्र कोई 75 वर्ष की होगी, अभी उनकी जिंदगी के 20 साल और बाकी थी। 1830 वफात का साल है। मैंने ड्रामे के लिए ये जमाना कई वजूह की बिना पर मुकर्रर किया।

नजीर ने 'खान आरजू' शाह हातिम, सौदा व 'मीर' से लेकर गालिब तक का जमाना देखा। 'मीर' के साथ उर्दू शाइरी का एक दौर खत् महोता है और 'मीर' का इंतकाल 1810 . में हुआ था जबकि गालिब की उम्र चौदह बरस की थी। मैं 'मीर' जैसे गिरां-कद्र शाएर के कलाम को सामने रख कर नजीर के बारे में बात करना चाहता था। और साथ ही ये इशारा भी मंजूर था कि इसी जमाने में उर्दू जबान ने अपना वो महबूब शाएर भी पैदा कर दिया था जो आगे चलकर 'गालिब' कहलाएगा।

ये वो जमाना था कि शख्सी हुकूमत की बुनियादें हिल चुकी थीं, मुगलिया सल्तनत का खात्मा हो गया था, अकबरे-सानी बराए-नाम दिल्ली के तख्त पर बैठे थे मुल्क में अंग्रेजों का इफ्तेदार बढ़ रहा था और चारों तरफ लूट-खसोट मची हुई थी। अन्दरूनी और बैरूनी हमलों से दिल्ली और आगरे पर बार-बार तबाही आ चुकी थी और शोराए-उर्दू दिल्ली छोड़कर भाग रहे थे और लखनऊ बहुत तेजी से अदबी मरकज बन चला था। लखनऊ नवाब सआदत अली खाँ का दौर-दौरा था और उर्दू शाइरी का इन्हेतात, जो उस दौर से वाबिस्ता है, शुरू हो गया था। साथ ही साथ उर्दू नस्न पनप रही थी और कलकत्ता में अंग्रेजों के कायम किए हुए फोर्ट विलियम कॉलेज में तर्जुमा व तसनीफो-तालीफ का काम बढ़ रहा था।

यानी उस दौरे-इन्हेतात में भी हमारे समाजी निजाम में वो अनासिर मौजूद थे जो आगे चलकर तरक्कीपसंद बनने की सलाहियत रखते थे। पुराना समाजी ढांचा टूट-फूट रहा था। चारों तरफ अफरातफरी और सियासी बेचैनी फैल रही थी। लोगों की इफ्तेसादी हालत दिन--दिन गिर रही थी और इन हालात का रद्देअमल 47 साल बाद 1857 . की जंगे-आजादी की शक्ल इख्तेयार करने वाला था जिसका असर गालिब की शाइरी ने कबूल किया।

इन सियासी व समाजी हालात की रौशनी में नजीर के कलाम को देखा जाए तो उसकी सच्चाई और गहराई का सही अंदाजा होता है। चुनांचे मुझे उन्नीसवीं सदी की इब्तेदा का जमाना ड्रामे के लिए सबसे ज्यादा मानी खेज और मुनासिब मालूम हुआ, उसकी नज्मों का तारीखी तािया करने के लिए ये दौर बहुत मौजूद था।

मैं ड्रामे की बुनियाद नजीर की जिंदगी को नहीं बल्कि उसके कलाम को बनाना चाहता था। ड्रामा लिखनेके दौरान ये बात भी जेहन में आई कि नजीर को स्टेज पर न लाना ही बेहतर होगा। इससे न सिर्फ मेरे मौजूद के बहुत से मरहले तै हो गए बल्कि मेरी तकनीक पर भी इसका अच्छा असर पड़ा और तकनीक और मौजूद का गुथाव बढ़ गया।

नजीर के हाँ जो तसौबुफ है, मैं उसे ड्रामे का मौजूद नहीं बनाना चाहता था, बल्कि उसके बेशतर अशआर में जो जोश, उमंग और इंसानियत दोस्ती पाई जाती है, मैं चाहता था कि यही ड्रामे की रूहे-रवां बन जाए। चुनांचे अगर मैं 75 वर्ष बूढ़े नजीर को स्टेज पर ले आता तो अपनी बातसफाई से न कह पाता। उसका अशर बराहे रास्त मेरे मौजूद पर पड़ता।

फिर ये कि मैं नजीर को अमर देखता चाहता था। क्यूंकि ये हकीकत है कि उसका कलाम जिंदा-जावेद है। उसकी शख्सियत के अफसानवी पहलू को भी बरकरार रखना चाहता था। चुनांचे नजीर को सामने न लाकर ही मैं उसे तारीखे-अदब के ड्रामे का सबसे बड़ा हीरो साबित कर सकता था। किसी अदाकार के लिए बहुत मुश्किल था कि उस हीरो को अपनी तमाम अजमत के साथ बऐनेही स्टेज पर पेश कर दे।

एक मरहला ये पेश आया कि अगर नजीर सामने नहीं आया तो फिर क्यूं कर स्टेज पर उसकी मौजूदगी की फिजा और देखने वालों के दिलों में उसकी शख्सियत का एहसास पैदा किया जा सकता है। इस गुत्थी को सुलझाने में मुझे बहुत सी नई-नई बातें सूझीं उनमें से एक नजीर की नवासी का किरदार है। जिसका ख्याल मुझे इस बात से आया कि अब्दुलगफूर शहबाज ने नजीर के अक्सर हालाते-जिंदगी उनकी नवासी विलायती बेगम से मालूम किए थे।

इसी तरह मैंने पहले सोचा था कि मीर को स्टेज पर पेश करूं मगर ये इरादा भी तर्क कर दिया। अलबत्ता अलामती किरदारों से काम लिया, मसलन तजकिरानवीस न सिर्फ उस जमाने और उसके बाद के तजकिरा नवीसों की नुमाइंदगी करता है बल्कि उसके किरदार में मीर की शख्सियत की भी झलक मिलती है। इसे अबुलकासिम मीर कुदरतुल्ला, शेफ्ता, मीर की शख्सियतों का इम्तिजाज समझिए।

रवायती शाइरी के इन्हेतात की तसवीर शाएरनुमा आदमी के किरदार में और मुत्वस्सित तबके की मुतजाद जेहनियत का नक्शा उसके हमजोली के किरदार में पेश करने का फैसला किया।

खोमचेवालों, कुम्हार, पतंगफरोश वगैरह के किरदार मुझे बड़ी आसानी से नजीर की नज्मों में से मिल गए, उन नज्मों की ड्रामानिगारी मेरे काम आई, यहां तक कि पतंगफरोश और मदारी के अक्सर मुकालमे भी मुझे नजीर के अशआर ही से मिल गए।

एक माह के मुताले के बाद एक हफ्ते के अंदर मैंने ड्रामा लिखा और फिर जामिया मिल्लिया वालों ने मेरे साथ मिलकर एक ही हफ्ते में ड्रामा तैयार भी किया। काम करने वालों में जामिया मिल्लिया के असातेजा, तोलबा, और बच्चों के इलावा कुछ दिल्ली के लोग और दिल्ली के आस-पास के देहातों के मर्द और औरतें भी शामिल थीं, तुगलकाबाद, बदरपुर और ओखला गांव की मंडली भी शरीक थी, ओखले का एक गदहा और मेंढ़ा भी। सब मिलाकर कोई 75 आदमी बयक वक्त स्टेज पर आए। उनकी रात-दिन की जां फिशानी का नतीजा था कि हाजरीन में से हर तबके के आदमी ने बड़ी गर्मजोशी से उनका इस्तेकबाल किया और अक्सर लोगों ने ये ख्वाहिश जाहिर की कि इस शहर में भी दिखाया जाए। चुनांचे ड्रामा जामिया ड्रामेटिक सोसाइटी की तरफ से नई दिल्ली में हो रहा है।

खास तौर पर बेगम कुदसिया जैदी, बेगम अनीस किदवई, मिसेज एलिजाबेथ गाबा और प्रो. मो. मुजीब की सरपरस्ती ने ड्रामा करने वालों के हौसले बहुत बढ़ाए, और उन्हीं की काविशों का नतीजा है कि 19, 20, 24 और 25 अप्रैल को ड्रामा शहर में दिखाया जा रहा है। पचास-साठ आदमियों की कास्ट इन दिनों उसी की तैयारी में लगी हुई है। और उनमें से हर शख्स के दिल में यही एक ख्याल है कि-

हवस है अब तो यही नक्दे-दिल तलक दीजे

शराबे-इश्ंक को खूबाँ में बैठकर पीजे

भरा है दिल में बहुत शौंक आह क्या कीजे

नाीर आज भी चल कर बुतों से मिल लीजे

फिर इशत्यांक का आलम रहे न रहे।