Monday, October 4, 2010

पर्दे के पार : मुस्लिम किरदार मज़हर हसनैन ,जेएनयू नई दिल्ली

पर्दे के पार : मुस्लिम किरदार
मज़हर हसनैन ,जेएनयू नई दिल्ली
एक जमाना वो था जब मुस्लिम फिल्मों में हीरो को शायरी करते हुए और हीरोइन को पर्दे के दायरे में रहते हुए दिखाया जाता था। पुराने समय से आज तक मुस्लिम भारतीय फिल्मो में बहुत बदलाव आए हैं। हाल ही मे रिलीज फिल्म धोखा में मुस्लिम पुलिस ऑफिसर को मुंबई मे मुस्लिम आतंकवादियों के साथ जूझते हुए उसे किस तरह की परेशानी का सामना करना पड़ता है यह दिखाया गया है। पूजा भट्ट ने इस फिल्म में इस बात को बखूबी बताया है कि जब भी बम ब्लास्ट की बात होती है तो सबसे पहले मुसलमानो पर ही शक क्यों किया जाता है। 'चक दे इडिंया' मे शाहरुख खान की भूमिका अभी तक लोगो के दिलों में ताजा है, जिसमे यह दिखाया गया है कि एक मुसलमान को किस तरह उसकी बेगुनाही का सबूत देना पड़ता है। इन दोनों फिल्मो में भारतीय मुस्लिम किरदार को खुद को बेगुनाह साबित करने के लिए कड़ा संघर्ष करते हुए दिखाया गया है।
भारतीय मुसलमानों को टेलीविजन ने पिछले कुछ सालों में फिल्मो से अपेक्षाकृत बेहतर तरीके से पेश किया है, फिर बात चाहे लुक की हो, पहनावे की हो या बात करने के अंदाज की। ऐसे ही कुछ धारावाहिक है अधिकार, जन्नत, शाहीन, नरगिस, रेहनुमा, तू नसीब है किसी और का और हिना, जिसे लोगों ने बड़े पैमाने पर सराहा है। समय के साथ-साथ मुस्लिम किरदारों की भूमिका मे बहुत परिवर्तन हुआ है। 50 और 60 के दशक में बनी भारतीय मुस्लिम फिल्मों में भारत और पाकिस्तान बनने के बाद भारतीयों की स्थिति और आतंकवाद को दर्शाया जाता था। इस समय बनी फिल्मों में मुस्लिम किरदारों को जमींदार या संपन्न व्यक्ति के रूप में दिखाया जाता था। धीरे-धीरे बॉलीवुड की फिल्मों में मुस्लिम किरदारों का रोल बदला है। 70 के दशक मे बनी फिल्मों में मुस्लिम किरदारों की भूमिका बदली हुई नजर आई। कमेंटेटर सैयद अली मुजत्बा के अनुसार उन दिनो बनने वाली फिल्मो में नवाबों को अपनी दौलत लुटाते और मुजरा करने वाली हीरोइन के साथ कोठों पर दिखाया जाता था, जैसे मेरे हुजूर, पाकीजा और उमराव जान। इसी दशक में मुस्लिम हीरो को अलीगढ़ कट शेरवानी में इकबाल या मिर्जा गालिब की शायरी करते हुए देखा जाता था। उन्हीं दिनों में हिंदू फिल्मों से सिनेमा जगत में जाति या वर्ग को लेकर किसी विशेष प्रकार का वातावरण नहीं दिखाई देता था।
1960 में मुस्लिमों का एक ऐसा सफल दौर रहा है, जब भजन गाने में भी मुसलमान आगे थे। जैसे मुस्लिम हीरो यूसुफ खान (दिलीप कुमार) ने मदिंर में एक भक्तिमय गीत गाया। इस गाने के संगीतकार थे शकील बदायूनी और इसे लिखा था साहिर लुधियावनी ने। इस गाने का संगीत नौशाद अली ने दिया और इसे मोहम्मद रफी ने गाया था। मुस्लिम सिनेमा पूरी तरह कलाकारों पर ही निर्भर नहीं रहा है। मुस्लिम संप्रदाय के अलावा अन्य धर्मों के निर्देशक जैसे सोहराब मोदी, गुरू दत्त और श्याम बेनेगल ने भी पूर्वी भारत में मुस्लिम फिल्मों के नए आयाम प्रस्तुत किए। सन् 1930 से भारतीय मुस्लिम फिल्मों ने सिनेमा जगत में धूम मचाई। फिल्मों के अतिरिक्त भारतीय सिनेमा जगत में जाने-माने संगीत निर्देशकों और गीतकारों ने भी मुसलमानों पर आधारित फिल्मों का सुपर हिट संगीत दिया है। 40 और 50 के दशक में संगीतकार नौशाद ने मुस्लिम फिल्मों में उत्तर प्रदेश के लोक संगीत और नवाबी अंदाज को जिस खूबसूरती के साथ पेश किया है, उसकी धुनें आज भी लोगों को गुनगुनाते हुए देखा जा सकता है। चाहे मुस्लिम डायलॉग ओर तहजीब को आज फिल्मों में कम देखा जाता हो लेकिन उस तहजीब की मिसाल आज भी दी जाती है जो पुराने समय की मुस्लिम फिल्मों की विशेषता हुआ करती थी। मुसिलम कल्चर को अभिनय के माध्यम से नई पहचान देने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका दिलीप कुमार, मीना कुमारी, नरगिस, नसीरूद्दीन शाह, शाबाना आजमी, ने निभाइ है। उन्होंने अपने नए और अनोखे अंदाज से मुसिलम संस्कृति को जिस तरह व्यक्त किया उसकी छवि आज भी लोगों की स्मृति पटल पर कायम है। 70के दशक में मुसिलम फिल्मों ओर किरदारों का ऐक ऐसा समय आया जब चाहे मुस्लिम किरदारों ने उदू डायलॉग नहीं बोले हो लेकिन मुसलिम किरदारों ने हमेशा ईमानदारी के साथ सच्चे मुसलमान होने का सबूत दिया है। लेखक सलीम ओर जावेद ने उर्दू जबान को अपने डायलॉग में शामिल किया लेकिन लेखक और अभिनेता कादर खान के साथ विलेन के रूप में मशहूर अमजद खान ने अपनी खास स्टाइल से मुस्लिम फिल्मों को नई पहचान दी। कुली में अमिताभी बच्चन ने एक सच्च मुसलमान का किरदार बखूबी निभाया। फिर आने वाले अगले दौर में हिंदु और मुसलमानो को आपस में लड़ते हुए दिखाया गया जैसे चेतन आनंद की फिल्म हकीकत मे दिखाया गया ह। तब लोगो को एक विशेष प्रकार के नाम जैसे सकार्पियोन, मोंगेंबो और कैलेंडर आदि लुभाने लगे थे। उसके बाद बनने वाल फिल्मों में अमर, अकबर ओर एंथोनी का नाम शामिल हैं। इसी दशक में ऐसी कई फिल्में बनी जिसमे मुस्लिम हीरों को हिदु बहन से राखी बंधवातेहए या हिंदू मां से प्रसाद लेकर खाते हुए दिखाया गया। सन 1995 में मनी रत्नम द्वारा निर्देशित फिल्म बॉम्बे रिलीज हूई। इस फिल्म ने हिंदु मुसिलम के बीचों एकता की नई कड़ी को जन्म दिया। भारतीय समाज मे हिंदु मुसलमानों की छवि को नया रूप देने का श्रेय इसी फिल्म को दिया जाता है। फिल्म रोजा से जेहादी आतंकवादी और राष्ट्र भक्त के बीच प्रतिद्दिंता का पता चलता ह तो हाल के कुछ सालों में बनी फिल्म सरफरोश, गदर एक प्रेम कथा, मिशन कशमीर, बार्डर, फना ने मुस्लिमों की आधुनिक छवि को उजागर कियया है। इन फिलमों के माध्यम से यह दर्शाया गया है कि भारत मे रहने वाले मुसलमान अपने देश क प्रति उतने ही सच्चे ओर वफादार है जितना कि किसी ओर धर्म के लोग है।
सईद अख्तर मिर्जा को 90 के दशक में मुस्लिम फिल्मे बनाने ओर मुस्लिम तहजीब को अपनी फिल्मों के माध्यम से लोगों के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए जाना जाता है। सईद अख्तर मिर्जा को 90 के दशक की फिल्मों में भारतीय मुस्लिम सिनेमा को जीवित रखने के लिए याद किया जाता है। मिर्जा ने उसी दौरान टेलीसीरियल नुक्कड़ के माध्यम से मध्यम वर्गीय परिवारों और उनकी समस्याओं को उजागर किया। इसी दशक में आने वाले कुछ और मुस्लिम धारावाहिकों के माध्यम से आम मुसलमानों की परेशानियों को समझाने की कोशिश की गई। उनके द्वारा निर्देशित फिल्म सलीम लंगड़े पर मत रो एक ऐसी ही फिल्म थी जिसके माध्यम से मुंबई में रहने वाले मुसलमानों की समस्याओं को प्रस्तुत किया गया है। इस फिल्म को 1990 में बेसट हिंदी फिल्म नेशनल अवार्ड से सम्मानित किया गया।
जाने माने टेलीविजन निर्देशक संजय उपाध्याय कहते हे कि सन 1992 के बाद से मुसलमानों पर आधारित धरावाहिक के बनने में कमी आई है ओर हिंदुत्व को आधार बनाकर धारावाहिक बनने लगे है जिसमें संयुक्त परिवारों, मल्यों ओर त्योहारों को आधार बनाया गया है। सन 2000 से धारावाहिक सास बहू पर आधारित होकर अधिक बन रहे है जिसे लोगों ने बड़ी संख्या में पसदं किया है। आज हालत यह है कि पिछले त्त् सालों में कोई मुसिलम बेस्ड धारावाहिक नहीं बना है क्योकिं इस समय बनने वाले धारावाहिक पूरी तरह से महिलाओं पर आधारित है। इस समय चाहे मुसलमानों पर आधारित फि ल्मों और धारावाहिकों में पुरानी फिल्मों की तरह उर्दू अदब को भी नए रूप में आधुनिक तरीके के साथ पेश किया गया है। अब हीराइन परदे में नजर नहीं आती बल्कि वह भी आम हीरोइनों की तरह रहती है इसी तरह से उनके बोलने के अंदाज औश्र तौर तरीकों में आधुनिकता की झलक दिखाई देती हैै॥ सईद अख्तर मिर्जा क हते है कि भारतीय सिनेमा ओर भारतीय सभयता को मुस्लिम फिल्मों ओर किरदारों के बिना अधूरा कहा जाए तो गलत नहीं होगा।