Sunday, January 9, 2011

رباعیات جوش ملیح آبادی

رباعیات جوش ملیح آبادی

پہلو میں مِرے دیدہٗ پُرنم ہے کہ دل
معبود! یہ مقیاسِ تپِ غم ہے کہ دل
ہو ذرّہ بھی کج تو بال پڑ جاتا ہے
یہ شیشئہ ناموسِ دو عالم ہے کہ دل


زاہد رہِ معرفت دکھا دے مجھ کو
یہ کس نے کہا ہے کہ سزا دے مجھ کو
کافر ہوِں؟ یہ تو ہوئی مرض کی تشخیص
اب اس کا بھی علاج بتا دے مجھ کو


اپنی خلوت سرا میں جائوں کیوں کر
خود کو اپنی جھلک دکھائوں کیوں کر
ہے سب سےبڑا فاصلہ قُربِ کامل
اپنی ہستی کا بھید پائوں کیوں کر


اپنی ہی غرض سے جی رہے ہہں جو لوگ
اپنی ہی عبائیں سی رہے ہیں جو لوگ
اُن کو بھی کیا شراب پینے سے گُریز؟
انسان کا خون پی رہے ہیں جو لوگ


کیا پھر یہی کھونا پانا ہو گا؟
پھر نازِ خرد دل کو اٹھانا ہوگا؟
سُنتے ہیں کہ اے بیخودی کُنجِ لحد
پھر حشر کے دن ہوش میں آنا ہوگا؟


آغاز ہی آغاز ہے، اور کچھ بھی نہیں
انجام بس اِک راز ہے، اور کچھ بھی نہیں
کہتی ہے جسے نغمئہ شادی دُنیا
اِک کرب کی آواز ہے، اور کچھ بھی نہی

मिट्‍टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ मुनव्वर राना ,http://www.misgan.com/shairi_h6.html

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मिट्‍टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ
मुनव्वर राना
कम से कम बच्चों के होंठों की हँसी की ख़ातिर
ऐसे मिट्‍टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ

जो भी दौलत थी वह बच्चों के हवाले कर दी
जब तलक मैं नहीं बैठूँ ये खड़े रहते हैं

जिस्म पर मेरे बहुत शफ्फाफ़ कपड़े थे मगर
धूल मिट्‍टी में अटा बेटा बहुत अच्छा लगा

भीख से तो भूख अच्छी गाँव को वापस चलो
शहर में रहने से ये बच्चा बुरा हो जाएगा

अगर स्कूल में बच्चे हों घर अच्छा नहीं लगता
परिंदों के न होने से शजर अच्‍छा नहीं लगता

धुआँ बादल नहीं होता कि बचपन दौड़ पड़ता है
ख़ुशी से कौन बच्चा कारख़ाने तक पहुँचता है

तू कभी देख तो रोते हुए आकर मुझको
रोकना पड़ता है पलकों से समंदर मुझको

इससे बढ़कर भला तौहीने अना1 क्या होगी
अब गदागर2 भी समझते हैं गदागर मु्झको

एक टूटी हुई कश्ती पे सफ़र क्या मानी
हाँ निगल जाएगा एक रोज़ समंदर मुझको

जख़्म चेहरे पे लहू आँखों में सीना छलनी
ज़िंदगी अब तो ओढ़ा दे कोई चादर मुझको

मेरी आँखों को वो बीनाई3 अता कर मौला
एक आँसू भी नज़र आए समंदर मुझको

इसमें आवारा मिज़ाजी का कोई दख़्ल नहीं
दश्तो सहरा4 में फिराता है मुक़द्दर मुझको

आज तक दूर न कर पाया अँधेरा घर का
और दुनिया है कि कहती है 'मुनव्वर' मुझको

तुम्हारे जिस्म की खुशबू गुलों से आती है
ख़बर तुम्हारी भी अब दूसरों से आती है

हमीं अकेले नहीं जागते हैं रातों में
उसे भी नींद बड़ी मुश्किलों से आती है

हमारी आँखों को मैला तो कर दिया है मगर
मोहब्बतों में चमक आँसुओं से आती है

इसीलिए तो अँधेरे हसीन लगते हैं
कि रात मिल के तेरे गेसुओं से आते हैं

ये किस मक़ाम पे पहुँचा दिया मुहब्बत ने
कि तेरी याद भी अब कोशिशों से आती है

छोड़ जाएँगे ये जहाँ तन्हा------------मीना कुमारी

छोड़ जाएँगे ये जहाँ तन्हा
मीना कुमारी

चाँद तन्हा है आस्माँ तन्हा
दिल मिला है कहाँ-कहाँ तन्हा

बुझ गई आस, छुप गया तारा
थरथराता रहा धुआँ तन्हा

ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा

हमसफर कोई गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे यहाँ तन्हा

जलती-बुझती-सी रौशनी के परे
सिमटा-सिमटा सा इक मकाँ तन्हा

राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएँगे ये जहाँ तन्हा।

Thursday, January 6, 2011

स्वाइन इन्फ़्लुएन्ज़ा ( Swine Flue ) मज़हर हसनैन ,जेएनयू नई दिल्ली

स्वाइन इन्फ़्लुएन्ज़ा (स्वाइन फ्लू) सूअरों में एक श्वास संबन्धी रोग है जो टाइप ए इन्फ़्लुएन्ज़ा वायरस द्वारा होता है और सूअरों में नियमित रूप से फैलता है। मनुष्यों को आमतौर पर स्वाइन फ्लू नहीं होता है, लेकिन मानवीय संक्रमण हो सकते हैं तथा होते हैं। स्वाइन फ्लू वायरस व्यक्ति-से-व्यक्ति को फैलने की जानकारी पहले भी प्रकाश में आई है, लेकिन पूर्व में, इसका संचरण सीमित था तथा तीन लोगों से अधिक में टिकता नहीं था।
मार्च 2009 के अंत तथा अप्रैल 2009 की शुरुआत में स्वाइन इन्फ़्लुएन्ज़ा ए (H1N1) वायरस से दक्षिणी कैलिफोर्निया तथा सैन एन्तेनियो के निकट मानव संक्रमण के पहले मामलों की जानकारी सामने आई। अमेरिका के अन्य राज्यों ने भी मानवों में स्वाइन फ्लू संक्रमण के मामलों की जानकारी दी है तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी मामलों की जानकारी दी गई है।
लोगों में स्वाइन फ्लू के चिह्न तथा लक्षण लोगों में स्वाइन फ्लू के लक्षण सामान्य मानवीय फ्लू के समान ही होते हैं तथा इनमें शामिल हैं बुखार, कफ, गला खराब होना, शरीर में दर्द, कंपकंपी तथा थकावट। कुछ लोगों ने स्वाइन फ्लू से जुड़े लक्षणों में डायरिया तथा वमन भी बताए हैं। पूर्व में, लोगों में स्वाइन फ्लू से संक्रमण के कारण स्वास्थ्य अत्यंत खराब होने (निमोनिया तथा श्वास प्रणाली की विफलता) एवं मृत्यु की जानकारी दी गई है। मौसमी फ्लू की तरह, स्वाइन फ्लू भी दीर्घकालीन स्वास्थ्य समस्याओं को और बदतर कर सकता है।
फ्लू के वायरस मुख्य रूप से व्यक्ति से व्यक्ति को खांसने या इन्फ़्लुएन्ज़ा से पीड़ित व्यक्ति के छींकने से फैलता हैं। कभी-कभी लोग किसी चीज़ पर लगे फ्लू के वाइरस को छूने एवं उसके बाद उनके मुंह या नाक को छूने से संक्रमित हो सकते हैं।
फ्लू से पीड़ित कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को कैसे संक्रमित कर सकता है? बीमार होने के बाद संक्रमित व्यक्ति अन्य लोगों को पहले दिन की शुरुआत से लेकर सात दिनों या उससे अधिक दिनों तक संक्रमित कर सकते हैं। इसका मतलब है इससे पहले कि आपको ज्ञात हो कि आप बीमार हैं, आप किसी और को फ्लू संचारित कर सकते हैं, और साथ ही साथ तब भी जब आप बीमार हों।
फ्लू से बचने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?सबसे पहले तथा अत्यंत महत्त्वपूर्ण: अपने हाथ धोएं। अच्छा सामान्य स्वास्थ्य बनाए रखने का प्रयास करें। पर्याप्त नींद लें, गतिशील रहे, तनाव पर नियन्त्रण रखें, पर्याप्त मात्रा में तरल पदार्थ लें एवं पोषक भोजन लें। फ्लू वायरस की संभावना वाली सतहों को न छूने का प्रयास करें। बीमार लोगों से नज़दीकी संपर्क रखने से
बचें। बीमार होने से बचने के लिए मैं क्या कर सकता/सकती हूँ? इस समय स्वाइन फ्लू से बचने के लिए कोई टीका उपलब्ध नहीं है। ऐसी दैनिक क्रियाएं हैं, जो इन्फ़्लुएन्ज़ा जैसी श्वास संबन्धी बीमारियां उत्पन्न करने वाले रोगाणुओं को फैलने से रोकने में मदद कर सकती हैं। अपने स्वास्थ्य की रक्षा के लिए ये दैनिक कदम उठाएं:
खांसते या छींकते समय अपनी नाक तथा मुंह को टिशु से ढंकें
अपने हाथों को बार-बार साबुन तथा पानी से धोएं, विशेष रूप से खांसने या छींकने के बाद। अल्कोहोल आधारित हाथ साफ़ करने के पदार्थ भी कारगर हैं,
अपनी आँखें, नाक तथा मुंह को छूने से बचें, रोगाणु इस तरह से फैलते हैं,
बीमार लोगों से नज़दीकी संपर्क रखने से बचें,
यदि आप इन्फ़्लुएन्ज़ा से पीड़ित हों तो यह सिफारिश की जाती है कि आप कार्य पर या स्कूल न जाएं तथा अन्य लोगों को संक्रमण से बचाने के लिए उनसे दूर रहें।
खांसने या छींकने से वायरस को फैलने से रोकने के लिए सबसे अच्छा तरीका क्या है? यदि आप बीमार हैं तो जितना अधिक संभव हो, अन्य लोगों से अपने संपर्क को सीमित रखें। यदि बीमार हों तो काम पर या स्कूल न जाएं। खांसते या छींकते समय अपनी नाक तथा मुंह को टिशु से ढंकें। ऐसा करना आपके आसपास के लोगों को बीमार होने से बचा सकता है। उपयोग किया हुआ टिशु रद्दी की टोकरी में डालें। यदि टिशु न हो तो किसी अन्य वस्तु से अपनी खांसी तथा छींक को ढंकें। उसके बाद, अपने हाथ साफ़ करें, एवं प्रत्येक बार खांसने या छींकने के बाद ऐसा करें।
फ्लू से बचने के लिए मेरे हाथ धोने का सर्वोत्तम तरीका क्या है? बार-बार हाथ धोना आपको रोगाणुओं से बचाने में मदद करेगा। हाथ साबुन या पानी से धोएं, या अल्कोहोल-आधारित हाथ धोने के पदार्थ से। यह सिफारिश की जाती है कि जब आप अपने हाथ धोते हैं - साबुन तथा गर्म पानी से - तो आप 15 से 20 सेकंड के लिए धोएं। जब साबुन और पानी उपलब्ध न हों तो अल्कोहोल-आधारित हाथ पोंछकर फेंकने योग्य कपड़े के टुकडे या जॅल सैनिटाइज़र का इस्तेमाल किया जा सकता है। आप उन्हें अधिकतर सुपरमार्केट्स या दवाई की दुकानों से प्राप्त कर सकते हैं। जेल के लिए पानी की आवश्यकता नहीं होती; उसमें मौज़ूद अल्कोहोल आपके हाथ पर के रोगाणुओं को मार देता है।
यदि आप बीमार हो जाएं एवं इनमें से किसी भी चेतावनी संकेत का अनुभव करें, तो आपातकालीन चिकित्सा देखभाल लें।बच्चों में आपातकालीन चेतावनी संकेत जिनमें त्वरित चिकित्सा देखभाल की आवश्यकता होती है, में शामिल हैं:

सांस तेज़ी से चलना या सांस लेने में तकलीफ
त्वचा का रंग नीला पड़ना
पर्याप्त मात्रा में तरल पदार्थ नहीं लेना
नींद से नहीं जागना या बातचीत नहीं करना
इतना चिड़चिड़ा होना कि किसी द्वारा थामे जाना नहीं चाहे
फ्लू जैसे लक्षण में सुधार लेकिन बुखार एवं अधिक खांसी के साथ पुनः लौटना
त्वचा में दानों के साथ बुखार
वयस्कों में आपातकालीन चेतावनी संकेत जिनमें त्वरित चिकित्सा देखभाल की आवश्यकता होती है, में शामिल हैं:
सांस लेने में तकलीफ या सांस फूलना
छाती या पेट में दर्द या दबाव
अचानक चक्कर आना
भ्रम
तेज़ या लगातार उल्टी होना
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स्वास्थ्य सेवाओं की बिगड़ती सेहत मज़हरहसनैन ,जेएनयू नई दिल्ली

स्वास्थ्य सेवाओं की बिगड़ती सेहत
मज़हरहसनैन ,जेएनयू नई दिल्ली
किसी ने सच ही कहा है कि स्वास्थ्य ही धन है। सचमुच बगैर अच्छे स्वास्थ्य के कुछ भी ीक नहीं लगता। मानव को संसाधन बनाने में सबसे बेहतरीन स्वास्थ्य का होना अनिवार्य है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अंतर्राष्ट्रीय संग न तथा भारत में केन्द्र एवं राज्य सरकारें लोगों को शानदार स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने हेतु कई कल्याणकारी योजनाएं चलाती हैं। यद्यपि यह संविधान में वर्णित है कि मानव के कल्याण हेतु सरकार को उपाय करने चाहिए तथापि भारत में स्वास्थ्य सेवाएं लगातार बद से बदतर होती जा रही हैं। देश में प्रति व्यक्ति के स्वास्थ्य के हिसाब से न डॉक्टर उपलब्ध हैं और न दवाएं। पंचायत एवं प्रखंड स्तर पर स्वास्थ्य सेवाएं काफी बदतर स्थिति में हैं। जिले में मेडिकल सरकारी सेवाओं का खस्ता हाल है। रोगी के लिए न बिस्तर की व्यवस्था है और न ही सफाई का ख्याल रखा जाता है। कई राज्यों के सरकारी अस्पतालों में रोगी को जो मुप्त दवाएं या अन्य फल व वस्तुं उपलब्ध करानी होती हैं, उसे अस्पताल प्रशासन निगल जाता है। सरकारी अस्पताल में अस्पताल कर्मियों तथा जूनियर डॉक्टरों द्वारा आम जनता के साथ बेहतर व्यवहार नहीं किया जाता, इलाज करना तो दूर की बात रही। ऐसा नहीं है कि सारे अस्पताल का प्रशासन तथा डॉक्टर इस तरह के हैं किन्तु प्राय तमाम जगहों पर ऐसी स्थिति है जिससे गरीब, बीमार तथा अशिक्षित जनता जानकारी के अभाव में निजी क्लीनिकों द्वारा लूटे जाते हैं। उदाहरण हेतु बिहार में दरभंगा शहर में प्राय निजी क्लीनिक के दलालों के द्वारा सुदूर ग्रामीणों क्षेत्रों के रोगी लूटे जाते हैं। उनके साथ न केवल दुर्व्यवहार होता है बल्कि इलाज का बेहद खराब इंतजाम रहता है। ग्रामीण लोग अपने परिजनों के इलाज के लिये जमीन-जायदाद गिरवीं रख देते हैं अथवा बेच देते हैं। इसके बावजूद निजी क्लीनिकों का खर्च उन्हें इलाज से महरूम कर देता है। कमोबेश पूरे बिहार में यही स्थिति है। दरअसल दरभंगा में सरकारी अस्पताल की दुर्दशा तथा दुर्व्यवहार से लोग निजी क्लीनिकों की तरफ रूख करने लगे हैं। केवल दरभंगा में ही नहीं, बिहार के कई जिले इसी स्थिति के शिकार हैं। इसके अलावा अनावश्यक मुद्दों को लेकर अस्पताल प्रशासन या डॉक्टरों द्वारा हड़ताल पर जाना आम बात है। इससे गरीब एवं बीमार जनता का सबसे बुरा हाल होता है। बिहार के अलावा भारत के अन्य राज्यों में भी डॉक्टरों का हड़ताल पर जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। अप्रैल के मध्य में मुंबई में रेजीडेंसी डॉक्टरों का हड़ताल पर जाना तथा अस्पताल प्रशासन द्वारा कई डॉक्टरों का निलंबन खराब स्वास्थ्य सेवाओं की कहानी सुनाता है। यद्यपि डॉक्टरों की मांग थी कि पोस्ट ग्रेजुएशन सीटों की संख्या नहीं घटानी चाहिए वरना गरीब का बच्चा डॉक्टर नहीं बन पाएगा तथा आम गरीब जनता निजी क्लीनिकों द्वारा लूटी जाएगी। इसके विपरीत सीटों की संख्या घटा दी गयी जिससे हड़ताल हुई। हाल में आंध्र प्रदेश में विधायकों के कथित दुर्व्यवहार के कारण डॉक्टर हड़ताल पर चले गये। सबसे बड़ा राष्ट्रीय स्तर का विवाद दिल्ली के एम्स के डॉ. वेणुगोपाल तथा स्वास्थ्य मंत्री डॉ. अम्बुमणि रामदौस के बीच लंबे समय से चला। इससे कई बार स्वास्थ्य सेवाएं बाधित हुईं। परंतु यह अत्यंत ही खेदजनक है कि अपने अहं या मांग को लेकर संवेदनशील चिकित्सक रोगी को मरते हुये छोड़ कर अस्पताल में हड़ताल करें। यह तो सामान्य बीमार जनता को मौत में धकेलना हुआ। यदि चिकित्सकों को कोई प्रशासनिक या अन्य दिक्कतें हैं तो उन्हें शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाना चाहिए। परंतु अपने कार्य को छोड़ कर हड़ताल करने से सबसे ज्यादा फर्क गरीब रोगी पर पड़ता है। अमीर लोग तो निजी क्लीनिकों में चले जायेंगे परंतु गरीब रोगी को इलाज के अभाव में मरना होगा जो स्पष्टत मानवाधिकारों का उल्लंघन है। डॉक्टरी पेशे के साथ अन्याय है। बेशक डॉक्टरों को भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है। और यह भी सच है कि बगैर हड़ताल, जुलूस एवं प्रदर्शन के मुखर रूप से बात नहीं सुनी जाती तथापि डॉक्टरों को मानवता की सेवा को ध्यान में रख कर रोगी के प्रति दया रखनी चाहिए। संवेदनशीलता का ईश्वरीय गुण नहीं छोड़ना चाहिए। प्रोफेशनल होना अच्छी बात है परंतु मानवीय एवं संवेदनशील होना इससे महान गुण है। अंतत सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ती जनसंख्या का कोप भी झेलना पड़ता है तथापि संचार के माध्यम से स्वास्थ्य की जानकारी देने के साथ सरकारी अस्पतालों में सुधार की पर्याप्त गुंजाइश है। वैज्ञानिक शोध के द्वारा सस्ती एवं उपयोगी दवाओं का निर्माण भी बेहतर स्वास्थ्य के लिए शानदार रहेगा।

फिल्म वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई

मज़हरहसनैन ,जेएनयू नई दिल्ली
बैनर : बालाजी मोशन पिक्चर्स
निर्माता : एकता कपूर, शोभा कपूर
निर्देशक : मिलन लुथरिया
संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती
कलाकार : अजय देवगन, कंगना, इमरान हाशमी, प्राची देसाई, रणदीप हुड़ा, गौहर खान
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 24 मिनट
रेटिंग : 3.5/5
‘वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई’ की शुरुआत में भले ही यह लिख दिया हो कि इस फिल्म की कहानी किसी व्यक्ति से मिलती-जुलती नहीं है, लेकिन फिल्म के शुरू होते ही समझ में आ जाता है कि यह हाजी मस्तान और दाउद इब्राहिम से प्रेरित है।
निर्देशक मिलन लुथरिया ने एक ऐसी फिल्म बनाने की सोची जो 70 के दशक जैसी लगे। आज भी कई लोग उस दौर की फिल्मों को याद करते हैं जब ज्यादातर विलेन स्मगलर हुआ करते थे और लार्जर देन लाइफ का पुट होता था। मिलन ने आधी हकीकत और आधा फसाना के जरिये उस दौर और उन फिल्मों को फिर जीवंत किया है जिन्हें देखना सुखद लगता है। हाजी मस्तान से प्रेरित किरदार सुल्तान मिर्जा (अजय देवगन) मिल-जुलकर धंधा (स्मगलिंग) करने में विश्वास रखता है। वह उन चीजों की स्मगलिंग करता है जिनकी अनुमति सरकार नहीं देती है, लेकिन उन चीजों की स्मगलिंग नहीं करता जिनकी अनुमति उसका जमीर नहीं देता है।
दाउद पर आधारित किरदार शोएब (इमरान हाशमी) में किसी भी कीमत पर आगे बढ़ने की ललक है। वह सिर्फ अपनी तरक्की चाहता है और सही/गलत में कोई फर्क नहीं मानता है। सुल्तान की तरह वह बनना चाहता है और उसकी गैंग में शामिल हो जाता है। अपने तेजतर्रार स्वभाव के कारण सुल्तान का विश्वसनीय बन जाता है। कु‍छ दिनों के लिए सुल्तान उसे अपनी कुर्सी पर बैठने के लिए कहता है और वह मुंबई को खून-खराबा, गैंगवार, ड्रग्स और आतंक के शहर में बदल देता है। इसी को लेकर दोनों के संबंधों में दरार आ जाती है।
कहानी बेहद सरल है और दर्शक इस बात से पूरी तरह वाकिफ रहते हैं कि आगे क्या होने वाला है, लेकिन फिल्म का स्क्रीनप्ले (रजत अरोरा) इस खूबी से लिखा गया है कि आप सीट से चिपके रहते हैं। ड्रामे को तीव्रता के साथ पेश किया गया है और एक के बाद एक बेहतरीन सीन आते हैं।

आन बान शान वाले मुहम्मद हसन

ज़ुबैर रज़वी

(जन्म: मुरादाबाद, 1926--निधन: दिल्ली, 2010)
जब कोई अदीब हमारे दरमियान से उठ जाता है तो अमूमन समाजी रवैया यह होता है कि उसके बारे में लिखके या बोलते हुए उसके किरदार की खामियों, कमज़ोरियों को नज़रंदाज़ करते हुए वो खूबियां उसकी ज़ात से वाबस्ता कर देते हैं जो उसके किरदार और ज़ात का हिस्सा थीं ही नहीं। उसकी रस्मी तारीफों के पुल बांधने वाले ये वो लोग होते हैं जो ऐसी शोकसभाओं में सबसे पहले आते हैं और सबसे पहले शोक के दो चार आंसू बहा के सभा से बाहर चले जाते हैं। अभी जब 24 अपै्रल 2010 को मुहम्मद हसन का जनाजा़ दिल्ली गेट के कब्रिस्तान में दफनाने के लिए लाया गया तो ये अंदाजा़ लगाना मुश्किल न था कि अभी हाल के वर्षो में कुर्रतुल-एन -हैदर और उनके बाद वफात पाने वाले अदीबों के जनाज़े में शरीक लोगों की तदाद के मुकाबले मुहम्मद हसन को दफनाये जाने के वक्त़ दिल्ली के सबसे ज़्यादा अदीब और उस्ताद व उनकें शागिर्दों का एक बड़ा हल्का मौजूद था। ये उस वक्त़ था जब मुहम्मद हसन एक अर्से से गोशादीद थे और अपनी अदबी सरगर्मियों का एक लंबा सफर बामानी अंदाज़ में तय करके वो उर्दू की मनसबदारियों के लिए जोड़ तोड़ करने वाले औसतियों की अदबी बाज़ीगरी और करतबों के खामोश तमाशाई बन गये थे।
मुहम्मद हसन के इंतकाल के कुछ दिनों बाद दिल्ली से प्रकाशित होने वाली तीन साहित्यिक पत्रिकाओं, ऐवाने उर्दू, अदबी दुनिया, उर्दू आजकल, ने अपने सरे वर्क़ पर और अंदरूनी सफात पर उनकी यादगार तस्वीरें शाया करते हुए उन पर दो दर्जन से ज़्यादा ताज़ा मज़ामीन शाया किये। उर्दू आजकल ने अपना जुलाई का पूरा शुमारा ही मुहम्मद हसन की अदबी सरगॢमयों के लिए ही मख्सूस कर दिया है। जो लोग मुहम्मद हसन के अदबी रवैयों और नज़रियात और उनकी हमाजेहत तहरीरों से अच्छी तरह वािकफ न होकर महज़ सरसरी जानकारी रखते रहे थे उनके लिए भी और उनके लिए भी जो उनके अदबी सरोकारों से अच्छी तरह वािकफ थे इन तीनों रिसालों में शामिल मज़ामीन में मुहम्मद हसन का जो अदबी और तख्लीकी सरापा है वो किसी रगोंरोगऩ और लीपापोती के बगैर पूरी शफ्फाफियत के साथ उभर कर सामने आया है। उन्होंने अदबी सियासत नहीं की, वो जोड़तोड़ और उर्दू इदारों पर कब्ज़ा करने और उन इदारों को अपनी अदबी सल्तनत की तौसी के लिए इस्तेमाल करने की कोई शतरंज नहीं खेली। वो मसलेहतसाज़ी को बुरा समझते थे। अपनी सच्ची और कड़वी बात बरमला कहने में झिझकते नहीं थे। माकर््िसज़्म को अपने लिए और इंसानियत के लिए एक रहनुमा निज़ामे फिक्र तस्लीम करते थे। तनकीद में वो समाजियाती ज़ाबिये पर इसरार करते थे और तहज़ीबी तारीख को अपनी तनकीद की बुनियाद समझते थे। वो नुमोदोनुमाइश से बचते रहे और जहां जहां उनकी सलाइयतों और काबिलियत ने उन्हें पहुंचाया वहां उन्होंने लगन, खुलूस और अटूट कमिटमेंट के साथ एक बड़े तनाजुर में अदब और ज़बान की तौसी और फरोग के लिए काम किया। मुहम्मद हसन के जिस्मोजान, उनकी सोच, उनका सारा ज़हनी अमल अपने खरेपन की बिना पर साफ साफ झिलमिल करता नज़र आता था।
मुहम्मद हसन को अमूमन मजनूं गोरखपुरी, आले अहमद सुरूर, एहतेशाम हुसैन और मुमताज़ हुसैन जैसे तरक्कीपसंद नक्कादों के फौरी आने वाले उर्दू आलोचकों की नयी नस्ल में गिना जाता था। और यह समझा जाता था कि वो अपने से पहले की उर्दू आलोचना को माक्र्सी नुक्तेनज़र से रौशन करने वाले तरक्कीपसंद नक्कादों के विचारों की तौसी करने वाले नक्काद हैं। मुहम्मद हसन ने आलोचना के अलावा रचनात्मक साहित्य की मुख्तलिफ विधाओं जैसे शायरी, नावेल, अफसाना पर भी तवज्जो दी। इसके अलावा ड्रामों में भी उनकी गहरी दिलचस्पी थी, उनके पास करीबी दोस्तों ने लखनऊमें मुहम्मद हसन के अदबी शबोरोज़ का एहाता करते हुए काफी कुछ दिलचस्प पैराये में लिखा है। शारिब रुडौलवी ने 'मुहम्मद हसन को आखिरी सलाम’ में लिखा है :
उनके आने की खबर लखनऊ में जंगल की आग की तरह फैल जाती थी और उस वक्त़ के तमाम नौजवान अदीबोशायर और यूनिवर्सिटी के तल्बा उनके पास पहुंच जाते थे। उनमें कमर रईस, इकबाल मजीद, आबिद सुहैल, रतन सिंह, आगा सुहैल, मंज़र सलीम, शौकत उमर लखनऊ के तरक्कीपसंद शायर और स्टूडेंट्स फेडरेशन के नौजवान सब जमा हो जाते थे और कभी यह भी नौबत आ जाती थी कि बैठने को जगह नहीं रह जाती थी। उनके साथ नौजवान दोस्तों की गुफ्तगू का महवर अदब, शायरी, ड्रामा या फिर सियासत और माॢक्सज़्म होता-- उनके आने से जैसे ज़हन में दरीचे खुल जाते थे, एक नयी तवानाई के साथ हम सब के कलम चलने लगते थे।
मुहम्मद हसन एक मुस्तरिब हिस्सियत के मालिक थे। वो हमेशा कुछ न कुछ नया और सब के लिए खासतौर से उर्दू के लिए ऐसा कुछ करना चाहते थे जो उर्दू को और उसकी पढ़ाई लिखाई को समाज और बदलते हुए हालात से हमआहंग रख सके। वो लखनऊ, अलीगढ़, कश्मीर और दिल्ली की यूनिवर्सिटियों से वाबस्ता रहे और हर जगह उन्होंने उर्दू शोबे को अपने ज़माने के आधुनिक और नये तकाज़ों से वाबस्ता रखने के लिए ज़मीन हमवार की और फज़ा बनायी। जे एन यू उनकी तदरीसी सरगर्मियों की आखिरी पड़ाव था, वहां वो 1974 से 1991 तक उर्दू पढ़ाते रहे। इस अरसे में मुहम्मद हसन का तमाम तवज्जो फिक्र जे एन यू के उर्दू शोबे को एक मिसाली शोबा बनाने की रही। मुहम्मद हसन की कोशिशों से जे एन यू उर्दू-हिंदी का मुश्तरका शोबा हिंदुस्तानी ज़बानों का मरकज़ कायम किया गया। दोनों ज़बानों को पढऩे वालों के लिए एक दूसरे की ज़बान और उनके दरमियान तख्लीकी और लिसानी रिश्तों को मुतारिफ कराने का कोर्स भी शुरू किया गया था ताकि उर्दू-हिंदी के दरमियान किसी टकराव के पनपने का मौका न मिले। इसके अलावा, यूनिवर्सिटी के तल्बा में हिंदुस्तानी अदब और उसकी रवायत का इरफान कराना भी मुहम्मद हसन की सोच का एक हिस्सा था। उनकी शिख्सयत का बेहद रौशन पहलू यह था कि वो हिंदी और उर्दू के तख्लीकी़ अदब को एक बड़े फिक्री तनाज़ुर में रखकर उसका मुताला करने पर इसरार करते थे। वो नज़री और अमली तनकीद में यकीन रखते थे। इसकी कुछ झलक उनकी किताब, हिंदी अदब की तारीख में भी मिल जाती है। वो उर्दू के पहले नक्काद हैं जो तहज़ीबी तारीख को अदबियात के मुताले के लिए एक ज़रूरी कड़ी समझते हैं। इस सिलसिले में उनके पी एच डी के मकाले, 'उर्दू अदब- शाहाने अवध के दौर में’, और उनके दो और मकाले, 'उन्नीसवीं सदी में शुमाली हिंद के अदब के फिक्री असालीब, 'उर्दू अदब में रूमानवी तहरीक और दिल्ली की उर्दू शायरी का तहज़ीबी और फिक्री पसमंज़र (अहदे मीर तक)’ काबिले गौर हैं। उनकी ये ऐसी नुमाइंदा तहरीरें हैं जो तहज़ीब और तारीख के सिलसिले में उनके नुक्ते नज़र को रौशन करती हैं। मुहम्मद हसन का मुताला वसी था। वे बड़े साफ सुथरे अंदाज़ में किसी नज़री कन्फ्यूज़न के बगैर अदबी मबाहिस पर अपने ज़ाबिये से मुदल्लल गुफ्तगू करते थे। उनकी कोशिश होती थी कि वो मबाहिस को उलझाये बगैर उन्हें शफ्फाफियत के साथ कारीं पर वाज़े कर दें। उर्दू अदब की समाजियाती तारीख उनकी एक बेहद अहम किताब है। वो अपने एक मज़मून में लिखते हैं :
हम अदब के घरौंदे अलग से बना कर कितने ही खुश क्यों न हो लें, मगर ये सारे घरौंदे बनते हैं पूरे अदबी मआशरे की अक्कबी ज़मीन पर। यह अलग बात है कि उस अक्कबी ज़मीन का रंग यहां कुछ और दिखायी देता है, मगर यह हमारे दौर, हमारे ज़माने और हमारे मआशरे की ही ज़मीन है। (तर्जे खयाल, पृ. 180)
मुहम्मद हसन की तन्कीदी सोच और शऊर की यह खूबी सबने तस्लीम की है कि वो किसी भी अदबी रुझान के मारूज़ी तजजि़ये के हक में थे। उनका कहना था कि हर निज़ाम अपना निज़ाम अपने साथ लाता है। उसका फलसफा, उसका साहित्य, उसका आर्ट, उसकी समाजी तरबियत से हमआहंग होता है। मुहम्मद हसन किसी भी अदबी सोच की एक मरकज़ पर गर्दिश करते रहने के हक में नहीं थे। वो खयाल और सोच में तौसी और तब्दीली के खायफ नहीं थे और न उससे 'एलर्जिक’ थे। इसके बरिखलाफ वो तन्कीद के इम्कानात और मुताले की आदतों में तब्दीली लाने के हक में थे। इसलिए मुहम्मद हसन माक्र्सी नक्काद होते हुए भी कारीं के एक बड़े हलके के लिए अपनी मस्कूरा सोच की बिना पर काबिले कबूल रहे थे। इसका बड़ा सबब अपने ज़माने के तख्लीकी और फिक्री ज़हन रखने वालों के साथ उनका मुसल्सल तबादला-ए- खयाल करने का मन रहता था।
यह शायद 1958 के आसपास का ज़माना था, उनकी नयी नयी शादी हुई थी, मैं श्रीनगर के एक मुशायरे में और वो अपनी दुलहन, रौशन आरा बेगम, के साथ हमारी ही बस में हमसफर थे। हम एक दूसरे से वािकफ नहीं थे, मगर नये ब्याहता जोड़े को जहां जहां बस ठहरती और मुसाफिर उतरते उन्हें ज़रूर देखते। वो मुशायरे में नज़र नहीं आये, और आते भी क्यों, वो तो कश्मीर हनीमून के लिए आये थे।
मुहम्मद हसन की सरगर्मियों का ज़्यादातर मरकज़ यूनिवर्सिटियां और शोबे थे जहां उनका तक़र्रुर होता रहा था । वो जब दिल्ली आये तब मैं आल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस में था, जहां सलाम मछलीशहरी भी थे। वो मुहम्मद हसन के बेतकल्लुफ और करीबी दोस्तों में थे। मुहम्मद हसन टॉक रिकार्ड कराने आते और सलाम के साथ चेक लेकर रीगल बिल्डिंग की एक दुकान पर कैश करा कर कनाट प्लेस की गलियों में नाओनोश के लिए गुम हो जाते थे। रफ्ता रफ्ता मुहम्मद हसन से अदबी गुफ्तगू भी होने लगी। मैंने जब अपना और अपने एक दोस्त नसीर खां का ज़रे सालाना उनके रिसाले,असरी अदब, के लिए मनीआर्डर से भेजा तो मुहम्मद हसन बहुत खुश हुए थे। वो असरी अदब से बहुत लगाव रखते थे और जो उसकी तौसी में हिस्सा लेता उसको मेहरबान नज़रों से देखते। उस वक्त मुहम्मद हसन की इल्मियत के बड़े चर्चे थे। मगर यह मेरी आवारागर्दी का ज़माना था, जब सज्जाद ज़हीर जैसी कद्दावर शिख्सयत ने दस्ते मेहरबां रखा, तो दिल्ली के नौजवान अदीबों का रवैया मेरे इसरार पर थोड़ा बदला और उस वक्त़ के सभी लिखने वाले अंजुमन तरक्कीपसंद मुसन्निफीन के जलसों में आने लगे थे। काफी हाउस में बैठकर अदब पर गरम गरम बहस करने वाले नौजवान अदीबों को खुशी हुई थी कि सज्जाद ज़हीर ने अंजुमन तरक्कीपसंद मुसन्निफीन के जलसों को मुनिक्कद करने की जि़म्मेदारी मुझे सौंपी थी। मुहम्मद हसन से मेरी फिक्री कुर्बत और किसी कदर अपनाइयत का ज़माना वह था जब मैंने उर्दूू ड्रामे पर काम शुरू किया। मुहम्मद हसन का एक ड्रामा ज़हाक काफी मशहूर हुआ था, वो रेडियो के लिए भी बहुत से ड्रामे लिख चुके थे। गालिब पर उनके दो ड्रामे, तमाशा और तमाशाई और कोहरे का चांद, मैने अपनी किताब तमाशा मेरे आगे, में शामिल किये थे जिसमें दिल्ली में कामयाबी से स्टेज हुए सात ड्रामों के टैक्स्ट भी थे। अपनी लंबी भूमिका में मैंने मुहम्मद हसन के गालिब पर लिखे ड्रामों को सराहते हुए यह लिखा था :
मुहम्मद हसन के ड्रामे तमाशा और तमाशाई में गालिब की बंटी हुई शिख्सयत का बड़ा पुरदलील मुहासिबा है। उसमें कई सीन उनके ड्रामे, कोहरे का चांद से फ्लैशबैक के तौर पर लिये गये हैं। इन टुकड़ों ने ड्रामे में मिर्जा नौशा और गालिब के दरमियान सवालो जवाब, तज़ाद और टकराव वाले मुकालमों में ज़ोर पैदा कर दिया है। मुहम्मद हसन वाहिद ड्रामानिगार हैं जिन्होंने हयाते गालिब और गालिब के अहवाल कवायफ पर दो अलग अलग ज़ाबियों से ड्रामे लिखे, तमाशा और तमाशाई, दर असल, उनके अपने ही ड्रामे, कोहरे का चांद की तौसी है। सैयद मेंहदी, सुरेंद्र वर्मा और मुहम्मद हसन ऐसे तीन ड्रामानिगार हैं जिनके गालिब पर ड्रामे मेरे खयाल में सब में अच्छे ड्रामे हैं।
शायद इसीलिए मुहम्मद हसन के गालिब पर लिखे ड्रामों की गूंज मेरी मुरत्तिबा उर्दू ड्रामे की दूसरी एंथोलाजी में भी सुनायी देती है। इसका इल्म मुहम्मद हसन को होता रहा और वो अपने ड्रामों पर गुफ्तगू करने के बजाय इस बात से खुश होते थे कि मैंने उर्दू ड्रामों के मज़मुई तौर पर 47 टैक्स्ट उर्दू पढऩे वालों को किताबी सूरत में फराहम करके उर्दू ड्रामों के लिए फज़ासाज़ी का बड़ा काम किया और यह साबित कर दिया है कि आज़ादी के बाद उर्दू ड्रामा खत्म नहीं हुआ, बल्कि वह और ज़्यादा तवानाई के साथ स्टेज पर खेला जाता रहा है। मुहम्मद हसन एक अरसे तक जनवादी लेखक संघ के सदर भी रहे, और जब मैंने जनवादी लेखक संघ से वाबस्तगी अिख्तयार की तो वो खुश थे। साहित्य अकादमी और दूसरे इदारों को ज़ाती मफाद के लिए इस्तेमाल करने की धांधलियों के खिलाफ जो जनवादी लेखक संघ ने तहरीक चलायी, उसे मुहम्मद हसन ने हमेशा कद्र की निगाह से देखा, मेरे रिसाले ज़हने जदीद को पढ़ते हुए उन्होंने एक बार बहुत ही दिलचस्प जुमला कहा था, 'आप मेरी सोच की परछाईं हैं।’
मुहम्मद हसन अपनी जि़ंदगी में और मरने के बाद भी उसी रंगरूप में नज़र आ रहे हैं जो उनका कुदरती रंगोरूप था। वो सच्चे और खरे अदीब थे। मसलहतों और जोड़तोड़ से बिल्कुल अलग और अपनी सोच और फिक्र के उन किनारों पर रहना पसंद करते थे जहां पर उछाल भरता हुआ पानी उन्हें कुछ करने के लिए मुस्तरिब रखता था।

अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग व अल्पसंख्यक वर्गों के लिए शिक्षा,,,, मज़हर हसनैन ,जेएनयू नई दिल्ली

अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग व अल्पसंख्यक वर्गों के लिए शिक्षा
मज़हर हसनैन ,जेएनयू नई दिल्ली

भारत, धर्म, जाति, उप जाति के आधार पर कई समूहों में बँटा हुआ है। देश में सामाजिक वर्गीकरण की जड़ें बहुत गहरी है। इससे देश में जाति आधारित हिंसा तथा उच्च वर्गों द्वारा निम्न जातियों पर अत्याचार की घटनाएँ हमेशा घटती रहती है। संविधान निर्माताओं, जिसमें डॉ. बी. आर. आम्बेडकर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है, ने एक रचनात्मक कार्य नीति या आरक्षण नीति का प्रतिपादन किया। ताकि देश के पारंपरिक जाति व्यवस्था के दुष्प्रभाव को कम किया जा सके और स्वतंत्रता एवं शिक्षा के अधिकार से वंचित लोगों को वे सुविधाएँ मुहैया कराई जा सकें।
कुछ तथ्य
1921- मद्रास प्रेसीडेंसी ने गैर-ब्राह्मण समुदाय के लिए विशेष आरक्षण का प्रावधान किया।
1935 – भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस ने एक संकल्प पारित किया जिसे पूना समझौता कहा जाता है। इसमें कमजोर वर्गों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र का प्रावधान किया गया।
1942 – डॉ. बी. आर. आम्बेडकर ने अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ की स्थापना की ताकि अनुसूचित जातियों को आगे बढ़ाया जा सके। उन्होंने सरकारी सेवा और शिक्षा में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की माँग की।
1947 – भारत को आजादी मिली। डॉ. आम्बेडकर को भारतीय संविधान की मसौदा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। भारतीय संविधान में जाति, धर्म, रंग, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव पर रोक लगाई गई। परन्तु सभी नागरिकों को समान अवसर प्रदान करते समय संविधान में “सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति, जनजाति वर्ग की उन्नति” के लिए आरक्षण का विशेष प्रावधान किया गया है। अनुसूचित जाति व जनजाति वर्ग का राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए संविधान में 10 वर्षों के लिए (जिसे संवैधानिक संशोधन द्वारा प्रत्येक 10 वर्षों के लिए बढ़ाया जा रहा ) अलग निर्वाचन क्षेत्र का प्रावधान किया गया है।
1979- मंडल कमीशन की स्थापना की गई ताकि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति का मूल्यांकन किया जा सके। कमीशन के पास पिछड़े वर्ग की उप-जाति के लिए तथ्यपरक आँकड़े उपलब्ध नहीं है। पिछड़े वर्ग की जनसंख्या आँकड़े के लिए आयोग 1930 के जनगणना रिपोर्ट का प्रयोग कर रहा है। इसके अनुसार इस वर्ग की संख्या कुल जनसंख्या का 52 प्रतिशत है तथा इसके अंतर्गत 1257 जातियाँ पिछड़े वर्ग के अंतर्गत चिह्नित की गई है।
1980 में आयोग ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत की और वर्तमान कोटा में बदलाव लाते हुए इसे 22 प्रतिशत से बढ़ाकर 49.5 प्रतिशत तक करने की सिफारिश की। वर्ष 2006 में पिछड़े वर्ग की सूची में जातियों की संख्या बढ़कर 2279 तक पहुँच गई जो मंडल कमीशन द्वारा तैयार सूची से 60 प्रतिशत अधिक है।
1990 - सरकारी नौकरियों में मंडल कमीशन की सिफारिशों को क्रियान्वित किया गया।
1991 - उच्च वर्ग की जाति के लोगों के लिए नरसिम्हा राव सरकार ने 10 प्रतिशत अलग आरक्षण व्यवस्था का प्रारंभ किया।
1992- अन्य पिछड़े वर्ग के लिए प्रस्तावित आरक्षण को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगित किया।
1998- केन्द्र सरकार ने विभिन्न सामाजिक समूह की आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति को आँकने के लिए पहली बार राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण आयोजित किया।
2005 में 93वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से निजी शैक्षणिक संस्थाओं में अन्य पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति व जनजाति वर्गों के लिए आरक्षण को सुनिश्चित किया गया है।
2006 में केन्द्र सरकार के उच्च शैक्षणिक संस्थाओं में अन्य पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावदान किया गया। इस तरह संपूर्ण आरक्षण 49.5 प्रतिशत तक पहुँच गया।

अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग व अल्पसंख्यक वर्गों के लिए शिक्षा मज़हर हसनैन ,जेएनयू नई दिल्ली