Tuesday, September 14, 2010
किसने लिखा - "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.." ?
किसने लिखा - "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.." ? |
जैसा कि अक्सर होता है कि इतिहास के अनछुए और अनदेखे पहलुओं को आज की रौशनी में देखने की कोशिशों पर सवाल उठ ही जाते हैं। आज़ादी के सिपहसालार हसरत मोहानी के बारे में जो दो कड़ियां मैंने पिछले दिनों लिखीं, उनका संपादित स्वरूप अख़बार "नई दुनिया" ने शनिवार के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित किया है। इस लेख को ज़ाहिर है देश के तमाम प्रदेशों में पढ़ा गया और इस पर एक प्रतिक्रिया जनाब शहरोज़ साहब की मुझे मिली हैं। शहरोज़ साहब लिखते हैं - "लेकिन पढ़कर चकित हुआ कि एक टी वी का पत्रकार जिसे हसरत मोहानी से अतिरिक्त लगाव है और खुद को लेखक उनका अध्येता बता रहा है..लेकिन एक इतनी बड़ी चुक हो गयी.सरफरोशी की तमन्ना..जैसी ग़ज़ल का रचयिता आपने अतिरेक की हद में मौलाना हसरत मुहानी को बतला दिया. जबकि दर हकिअत इसे बिस्मिल अज़ीमाबादी ने लिखा था.अभी कुछ रोज़ पूर्व मैं ने अपने ब्लॉग रचना-संसारपर भी दर्ज किया था।" अब पता नहीं शहरोज़ साहब को मेरे अतीत में टीवी पत्रकार भी होने के नाते मेरी मेहनत पर शक़ हुआ या मेरी नासमझी का यकीन। उन्होंने आज़ादी के मशहूर तराने "सरफरोशी की तमन्ना ..." का रचयिता हसरत मोहानी को बताए जाने को मेरा अतिरेक ही नहीं बल्कि अतिरेक ही हद मान लिया। ख़ैर, शहरोज़ भाई की भाषा पर मुझे दिक्कत नहीं क्योंकि जो कुछ उन्होंने पढ़ा वो उनकी अपनी खोजबीन पर सवाल लगाता था, सो उनका आपे से बाहर होना लाजिमी है। उनकी टिप्पणी मैंने अपने ब्लॉग पर बिना किसी संपादन के हू ब हू लगा दी है। साथ ही, उनके इस एतराज़ पर अपनी तरफ से जानकारी भी दे दी। लेकिन, मुझे लगता रहा कि बात को और साफ होना चाहिए और दूसरे लोगों को भी इसमें अपनी अपनी राय देनी चाहिए। हिंदुस्तान बहुत बड़ा देश हैं और आज हम लोगों के पास इतिहास को जानने के अगर कोई तरीके हैं वो या तो अतीत में लिखी गई किताबें या फिर गिनती के जानकारों से बातचीत। हसरत मोहानी पर डॉक्यूमेंट्री बनाने से पहले मैंने और मेरे सहयोगियों ने कोई छह महीने इस बारे में रिसर्च की। इसके लिए हम हर उस जगह गए जहां से हसरत मोहानी का ज़रा सा ताल्लुक था, मसलन फतेहपुर ज़िले का हसवा, जहां हसरत मोहानी सिर्फ मैट्रिक पढ़ने गए थे। नेशनल आर्काइव की ख़ाक छानी गई, जामिया मिलिया यूनीवर्सिटी की लाइब्रेरी खंगाली गई। अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी के अलावा इस बाबत भारत सरकार की तरफ से छपी किताबें भी पढ़ी गईं। इसी दौरान हम लोगों को एक किताब मिली, जिसे लिखा है उर्दू की मशहूर हस्ती जनाब मुज़फ्फर हनफी साहब ने, जिनके बारे में शहरोज़ साहब का कहना है - "मुज़फ्फर हनफी साहब से भी चुक हुई.समकालीन सूचनाओं के आधार पर ही उन्होंने लिख मारा.बिना तहकीक़ किये. ढेरों विद्वानों ने ढेरों भूलें की हैं जिसका खमयाज़ा हम जैसे क़लम घिस्सुओं को भुगतना पड़ रहा है." पहली अप्रैल 1936 को पैदा हुए हनफी साहब की गिनती देश में उर्दू अदब के चंद मशहूर लोगों में होती है। और उनकी क़लम पर शक़ करने की कम से कम मुझमें तो हिम्मत नहीं है। उन्होंने किस्से लिखे, कहानियां लिखीं, शेरो-शायरी भी लिखी। इसके अलावा पुराने ज़माने के लोगों के बारे में उनकी रिसर्च भी काफी लोगों ने पढ़ी। उनकी रिसर्च की भारत सरकार भी कायल रही और तभी नेशनल काउंसिल फॉर प्रमोशन ऑफ उर्दू ने उनके रिसर्च वर्क का अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं में अनुवाद भी कराया। हनफी साहब ने हसरत मोहानी पर भी एक किताब तमाम रिसर्च के बाद लिखी, जिसे नेशनल बुक ट्रस्ट ने देश की दूसरी भाषाओं में भी प्रकाशित किया है। इसी किताब के पेज नंबर 27 पर छठे अध्याय में हनफी साहब एक और मशहूर हस्ती गोपी नाथ अमन के हवाले से लिखते हैं कि आज़ादी के मशहूर तराने "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाजू ए क़ातिल में है" को अक्सर बिस्मिल से जोड़कर देखा जाता है, दरअसल ये बिस्मिल ने नहीं लिखा बल्कि राष्ट्रीय आंदोलन को ये मोहानी का तोहफा था। वैसे शहरोज़ साहब की काबिलियत पर भी शक़ की गुंजाइश कम है। कल को उनका रिसर्च वर्क भी इसी तरह शाया हो, ये मेरी दुआ है। क्योंकि विष्णुचंद्र शर्मा जी कहते हैं - "मुझे लगता है ,शहरोज़ पर बात करने के लिए , सर्वप्रथम उसके समूचे रचनाकर्म पर काम करने की ज़रुरत है ,जैसा कभी भगवतीचरण वर्मा पर नीलाभ ने किया था।" (शहरोज़ जी के ब्लॉग पर उनके ही द्वारा शर्मा जी के हवाला देते हुए लिखा गया अपना परिचय) शहरोज़ साहब अगर हनफी साहब की रिसर्च को झुठलाना चाहें तो इसके लिए वो आज़ाद हैं। वैसे वो इसके लिए खुदा बख्श लाइब्रेरी में बिस्मिल अज़ीमाबादी की हैडराइटिंग में रखे इस ग़ज़ल के पहले मतन का हवाला देते हैं। वो ये भी कहते हैं कि ये ग़ज़ल चूंकि कोर्स में शामिल है, लिहाजा इस पर विवाद की गुंजाइश नहीं है। वैसे मुझे भी अपनी रिसर्च के दौरान नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इंडिया की ही एक और क़िताब "स्वतंत्रता आंदोलन के गीत " पढ़ने को मिली जिसमें इस तराने के साथ राम प्रसाद बिस्मिल का नाम लिखा है। लेकिन, मैं इस बारे में जिस निष्कर्ष पर पहुंचा वो मोहानी साहब के घर वालों से मुलाक़ात और दूसरे इतिहासकारों के नज़रिए से वाकिफ़ होने के बाद ही पहुंचा। फिर भी, मैं चाहूंगा कि इस बात पर और रिसर्च हो क्योंकि फिल्मकार या पत्रकार किसी भी विषय का संपूर्ण अध्येता कम ही होता है। वो तो संवादवाहक है, मॉस कम्यूनिकेशन का एक ज़रिया। शहरोज़ साहब का ये कहना कि मुझे मोहानी साहब से अतिरिक्त लगाव है, भी सिर माथे। मोहानी साहब ने जिस धरती पर जन्म लिया, उसी ज़िले की मेरी भी पैदाइश है। जैसे कि बिस्मिल अज़ीमाबादी और शहरोज़ साहब की पैदाइश एक ही जगह की है। मोहानी साहब तो ख़ैर एक शुरुआत है, मेरी डॉक्यूमेंट्री सीरीज़ - ताकि सनद रहे - में अभी ऐसे और तमाम नाम शामिल हैं। और, जब नई लीक खींचने की कोशिश होगी, तो संवाद और विवाद तो उठेंगे ही। वैसे, मराठी साहित्य भी "सरफरोशी की तमन्ना.." का रचयिता हसरत |
Sunday, September 12, 2010
मंटो की कलम उगलती थी आग

मंटो की कलम उगलती थी आग
सआदत हसन मंटो
उर्दू अफसानानिगारों का जब भी जिक्र होता है, सआदत हसन मंटो की धुंधली यादें ताजा हो जाती हैं। साथ ही उनकी मशहूर कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ लोगों के जहन में चित्रित हो उठती है। हालांकि उनकी कलम के तीखे तेवरों और नग्न सच्चाइयों को लोगों ने अश्लीलता का नाम भी दिया, लेकिन इस कहानीकार की कलम कभी रुकी नहीं।
जन्मदिन 11 मई पर विशेष
उर्दू अफसानानिगारी के चार स्तम्भों (कृशन चन्दर, राजिन्दर बेदी और अस्मत चुगतई) में से एक सआदत हसन मंटो का शुमार ऐसे साहित्यकारों में किया जाता है, जिनकी कलम ने अपने वक्त से आगे के ऐसे अफसाने लिख डाले, जिनकी गहराई को समझने की दुनिया आज भी कोशिश कर रही है।
नग्न सच्चाइयों ने नजरें फेरने के लिये उसे अश्लीलता का नाम देने वाली दुनिया को सच की बदनुमा तस्वीर भी देखने की दुस्साहसिक ढंग से प्रेरणा दे गए मंटो ने बेहूदगी फैलाने के कई मुकदमों का सामना किया। लेकिन यह साहित्यकार न कभी रुका और न ही थका।
शाहकार वक्त के मोहताज नहीं होते। मंटो ने इस बात को अक्षरश: सही साबित करते हुए महज 43 बरस की जिंदगी में उर्दू साहित्य को बहुत समृद्ध किया।
बीसवीं सदी के मध्य में ही दुनिया को अलविदा कह गए इस दूरदृष्टा साहित्यकार के विचारों की गहराई का अंदाजा लगाना आज भी आसान नहीं लगता।
उर्दू अफसानानिगार मुशर्रफ आलम जौकी ने कहा कि दुनिया अब धीरे-धीरे मंटो को समझ रही है और उन पर भारत और पाकिस्तान में बहुत काम हो रहा है लेकिन ऐसा लगता है कि मंटो को पूरी तरह समझ पाने के लिये 100 साल भी कम हैं।
जौकी के मुताबिक शुरुआत में मंटो को दंगों, फिरकावाराना वारदात और वेश्याओं पर कहानियां लिखने वाला सामान्य सा साहित्यकार माना गया था, लेकिन दरअसल मंटो की कहानियां अपने अंत के साथ खत्म नहीं होती हैं। वे अपने पीछे इंसान को झकझोर देने वाली सच्चाइयां छोड़ जाती हैं। उनकी सपाट बयानी वाली कहानियां फिक्र के आसमान को छू लेती हैं।
पढ़ने वालों को अपने अफसानों से चौंकाने के नायाब फन के मालिक मंटो ने उर्दू अदब को ‘ठंडा गोश्त’, ‘नंगी आवाजें’, ‘खोल दो’ और ‘काली शलवार’, जैसी महान कृतियां दीं, लेकिन जब वे लिखी गईं तो उन्हें महज ‘अश्लीलता’ परोसते दस्तावेज के अलावा और कुछ नहीं कहा गया। दरअसल वे कहानियां जिंदगी की उन पुरपेंच गहरी सच्चाइयों पर पड़े पर्दों को नोंच फेंकने की कोशिश थीं, जिनसे दुनिया हमेशा से नजर बचाती रही थी।
मंटो के कलम की मजबूती ही थी कि वर्ष 1947 से पहले तीन बार भारत में और फिर पाकिस्तान बनने के बाद वहां अश्लीलता फैलाने के तीन मुकदमे चलने के बावजूद वह कभी मुजरिम नहीं ठहराए जा सके।
मंटो को उर्दू अफसानानिगारी के अन्य स्तम्भों कृशन चन्दर, राजिन्दर बेदी और अस्मत चुगतई से अलग लेखक बताते हुए जौकी ने कहा कि उनकी राय में मंटो में पढ़ने वाले को झकझोरने की खूबी कहीं ज्यादा थी और हंसी-हंसी में इंसान की नब्ज़ पर हाथ रख देने के मंटो के फन की दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती। मंटो के बगैर उर्दू अफ़साना निगारी का इतिहास अधूरा है।
मंटो ने देश के बंटवारे के वक्त अपनी पत्नी की जिद पर पाकिस्तान चले जाने की टीस को अपनी कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ में बड़ी शिद्दत से बयान किया है। यह कहानी उर्दू अफसानों के समुद्र का बेशकीमत मोती समझी जाती हैं।
मंटो ने 43 साल के छोटे से जीवन में रेडियो की नौकरी की, फिल्मों की पटकथा लिखी, पत्र पत्रिकाओं का संपादन किया तथा कहानियां, उपन्यास, निबंध और नाटक लिखे। मंटो ने जिस तरह से अपनी रचनाओं में कभी कोई समझौता नहीं किया, ठीक उसी तरह उन्होंने अपना जीवन भी अपनी शर्तों पर जिया।
गजब का था। उनके अफ़सानों को एक बार पढ़ना शुरू किया जाये तो उसे बीच में नहीं छोड़ा जा सकता।
सआदत हसन मंटो का जन्म 11 मई 1912 को पंजाब के लुधियाना में हुआ था। स्कूल में शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही उनमें साहित्य के प्रति रुचि पैदा हो गई थी। वर्ष 1936 में उनका पहला कहानी संग्रह ‘आतिश पारे’ प्रकाशित हुआ था।
उर्दू अफ़सानानिगारी को नई शैली और बिल्कुल अलग मिजाज देने वाले इस महान कहानीकार ने 18 जनवरी 1955 को दुनिया को अलविदा कह दिया।
1954 की पुरानी भूमिका : आगरा बाजार हबीब तनवीर
1954 की पुरानी भूमिका : आगरा बाजार
हबीब तनवीर
नाज उठाने में जंफाएँ तो उठाएँ लेकिन
लुत्फ भी ऐसा उठाया है कि जी जाने है। -नाजीर
अत्हर परवो का टेलीफोन आया कि 14 मार्च को जामिया मिल्लिया में अंजुमन तरक्की पसंद मसन्नेफीन जामिया मिल्लिया की तरफ से यौमे नजीर मनाया जा रहा है, क्या ही अच्छा हो कि मैं इस सिलसिले में नजीर पर एक ड्रामा तैयार करवा दूं।
नजीर के कलाम से दिलचस्पी तो मुद्दत से रही है, मगर नजीर पर ड्रामा लिखने का कभी ख्याल न आया था। 'इंशा' के बारे में अलबत्ता सोचा करता था कि उर्दू के इस बाकमाल मगर नामुराद शाएर के कलाम और जिंदगी पर एक हुत रंगीन ट्रेजेडी लिखी जा सकती है।
नजीर की नज्मों को जरा गौर से देखा तो हमारी मुआशरत की बहुत-सी तरसवीरें निगाह के सामने खिंच आई जिनकी रंगीनी 'इंशा' क्या उर्दू के बड़े से बड़े शायर के कलाम को फीका कर देती है। उसकी नज्मों के आहंग में रजाइयत और अफादियत की गूंज सुनाई दी और मैं इस ख्याल से फड़क गया कि नजीर की आवाज उर्दू के हर शायर से अलग है, मगर इंसानियत की आवाज है। और ये हमागीरी किसी और को नसीब न हुई।
नजीर से मुताल्लिक जितनी किताबें मिल सकती थीं वो किताबें संभालीं और एक गोशे में बैठ गया। मुताले के दौरान नजीर के कलाम से मेरी दिलचस्पी तो जरूर बढ़ती चली गई लेकिन साथ ही ड्रामा लिखने के सिलसिले में मेरी उलझनें भी बढ़ गई। मैं ड्रामे के लिए कशमकश () की तलाश में था, नजीर के हालाते जिंदगी मालूम कर रहा था। और उनके हालात की दसदीक व तहकीक के लिए सनदें ढूंढ रहा था कि मुझे यकायक उर्दू शाइरी की तारीख का सबसे बड़ा ड्रामा मिल गया।
आम तौर से ये माना जाता है कि 'मीर' और 'गालिब' के जमानों के दरमियान जो दौर गुजरा है उसने कोई ऐसा शायर पैदा न किया जो 'मीर' और 'गालिब' का हम पल्ला हो। 'गालिब' के दौर में शोरा अपनी रवायतों को याद करते तो एक आवाज होकर बस यही कहते कि - ''सुनते हैं अगले जमाने में कोई 'मीर' भी था।'' 'गालिब' के बाद निगाह सीधी 'इकबाल' के साथ कुछ 'हाली' की याद ताजा हो जाती है। ये हस्तियां हमारी शाइरी की तारीख में संगे-मील की हैसियत रखती हैं जिनकी शख्सियत हमारी सारी तवाोोह जज्ब कर लेती है। हालांकि हकीकत ये है कि 'हाली', 'इकबाल' और 'इकबाल' के बाद 'जोश' और जदीद शोरा का कलाम सबसे ज्यादा उर्दू के उस फकीर शाएर का मरहूने-मिन्नत है, जो हमारे अदब ने 'मीर' के बाद और 'गालिब' से पहले पैदा किया और जिसका जिक्र उर्दू अदब की तारीख में नहीं मिलता। और अगर मिलता है तो यूं कि जैसे लिखने वाला 'नजीर' का जिक्र करके उसकी जात पर बहुत बड़ा एहसान कर रहा है।
गौर से देखा जाए तो नजीर के कलाम और अंदाजे-बयान में आज भी इतना तनौव्वो और इतनीगुंजाइश है कि उससे जदीद शाइरी बहुत कुछसीख सकती है। हमारी शाइरी पर हैयत और मौजू के हजार इनक्लाबात के बावजूद आज तक गजल का बहुत गहरा असर पाया जाता है, और हमारी उर्दू गजल की फिजा ज्यादातर ईरानी मुआशरत की परवरदा है। उन पुरानी तरकीबों और इसतेआरो, उन पिटे हुए लफ्जों और मुहावरों से असरेहाजिर के नगदमें बोझल हैं। मगर अवाम की जबान और हिंदुस्तानी लहजे में बात करने का सलीका आज भी 'नजीर' अकबराबादी से सीखा जा सकता है। 'नजीर' उर्दू का सबसे ज्यादा 'हिंदुस्तानी' शाएर था। जो हैसियत उर्दू नाविलिनिगार रतननाथ शरशार और प्रेमचंद की है वही उर्दू शाइरी में 'नजीर' अकबराबादी की।
'नजीर' लगभग एक सौ साल ज्यादा रहा। उसकी जिंदगी में उसे किसी अदीब ने न पूझा, मरने के कमोबेश ेक सौ साल बाद तक उसका नाम किसी नक्काद की जबान पर न आयाय मगर दो सौ साल तक अवाम ने नजीर को जिंदा रखा। उसके अशआर और उसकी नज्में सीना-ब-सीना आज की नस्ल तक पहुंचा दिए गए, अवाम ने अपनी 'अमानत' की बड़ी जिम्मेदारी से हिफाजत की और हिंदुस्तान के शहर, देहात और कसबे आज भी नजीर के नगमों से गूंज रहे हैं। दरवेश और कदागर शुमाल से लेकर जुनूब तक आज भी नजीर की नज्में गली-कूचों में गाते फिर रहे हैं। ये 'नजीर' की जिंदगी और कलाम का सबसे बड़ा ड्रामा है और हमारी तारीखे-अदब का सबसे दिलचस्प बाब।
ड्रामे के अंदर कलामे-नजीर के उस पहलू को उजागर करना चाहता था और उसी को मैंने अपना मौजू बनाया।
नजीर के हालाते-जिंदगी मालूम करने के सिलसिले में जो दुश्वारियां पेश आई हैं खुद ये दुश्वारियां ड्रामे के हक में रहमत बन गई ड्रामे के मौजू और तकनीक के मुकर्रर करने में उनका भी हाथ है।
नजीर की सवानेह की छानबीन करने के सिलसिले में लिखने वालों ने अपनी जेहानत से काम लेकर बड़ी हाशिया आराइयां की हैं, और जितनी तफसीलात हमें किताबों के जरिए नजीर की जिंदगी के बारे में मालूम हैं उनमें से अकसर शुब्हे से खाली नहीं, यहां तक कि तारीखे-पैदाइश के बारे में भी इख्तेलाफे-राय पाया जाता है। अगर कोई बात हमें वाजेह तौर से मालूम है तो बस ये कि अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के उस अजीमुश्शान शाएर को मोतकद्देमीन ने शाएर ही न माना, मुबतजिल गो कह दिया। लेकिन अवाम ने उसके कलाम को सर आंखों पर उठाया और यही हकीकत हमारे लिए सबसे ज्यादा अहमियत रखती है।
बस तो फिर ड्रामा हो या मोकाला, नजीर के बारे में बात कहनेकी यही है, मगर ड्रामे के ्ंदर ेय बात किस ढंग से कही जाएगी, ये मेरे लिए एक मसला बन गया, इस दुश्वारी का असर ड्रामे के रूप पर बराहे-रास्त पड़ा। मैंने पहले तो ये सोचा था कि नजीर की जिंदगी के मुख्तलिफ पहलू ड्रामे में उजागर करूं या उसकी जिंदगी के किसी एक गोशे पर रौशनी डालूं और एक छोटा-सा नाटक तैयार कर लूं। मगर इसकेबारे में तसदीक से मैं क्या कह सकता था, और अगर कह भी लेता, तो कहने की बात तो ये न थी।
मुझे तो ये कहना था कि नजीर की अवाम दोस्ती ने उसे हयाते-दवाम बख्श दी है और 'नजीर' फकीर और दरवेशों में आज तक मकबूल है। बस 'नजीर' की नज्मों ही में मुझे ड्रामे के लिए एक जदीद तर्ज का फकीरों का 'कोरस' मिल गया जो ड्रामे की बुनियादी कड़ी है।
मैं ये कहना चाहता था कि उस जमाने के पढ़े-लिखे मुतवस्सित तब्के ने नजीर की इनसान की हैसियत से तो तरीफ की, लेकिन बहैसियत शोर उसके नजरअंदाज किया। अलबत्ता छोटे काम करने वाले और कारीगरों में वो मकबूल रहा। बस मुझे कुतुबफरोश और पतंगवाले किरदार मिल गए, जिनके बल पर ड्रामा आगे बढ़ता है और जिनकी दुकानें बाजार के दो अहम तरीन मरकज हैं।
मैंने पढ़ रखा था कि नजीर राह चलते नज्में कहा करते, और छोटे पेशे वाले लोग और भिखारी अक्सर उनसे नज्मों की फरमाइश करते, और वे उनकी बात कभी न टालते। ख्वाह ये अफराना हो या हकीकत, मुझे ये बात बहुत अच्छी लगी, इससे मेरे ड्रामे को बहुत मदद मिल रही थी, और कलामे नजीर पढ़ने के बाद मैं इस पर ईमान लाने के लिए बिल्कुल तैयार था। चुनांचे ककड़ीवाले के किरदार ने ड्रामे के हीरो की शक्ल इख्तेयार कर ली, और यहीं से मुझे अपने प्लॉट की बुनियाद भी मिल गई और ड्रामे का मंजर भी और इसका उनवान भी।
प्लॉट के ऐतबार से ड्रामा अफसानवी हैसियत रखता है, कहानी मनगढ़ंत है, और बहुत छोटी और सीधी-सादी। मैंने जोर इस बात पर दिया है कि 'खेल' को उस रूप में पेश करूं कि जो बुनियादी बात नजीर के बारे में कहना चाहता हूं वो ठीक-ठीक और दिलचस्पी के साथ कह पाऊं।
मैं उसकी नज्मों की तारीखी पसमंजर में देखने की कोशिश कर रहा था मैंने देखा कि उन नज्मों की बिना पर हमारी उस जमाने की पूरी मुआशरती तारीख मुरतब की जा सकती है। इस कलाम को उस अहद के सियासी और समाजी पसमंजर से हटकर समझना दुश्वार है, और इस दुश्वारी ने एक नए किरदार की तशकील की। और मदारी के मुकालमे मेरे हाथ आए।
हमारी अदबी तारीखों में या तो मुल्क के सियासी और समाजी हालात सिरे से मिलते ही नहीं या अगर मिलते हैं तो बराए नाम। और हमारी सियासी तारीखों में अदबी और मुआशरती हालात का पता नहीं चलता।हालांकि इन दोनों को एक-दूसरे से अलग करके देखना गलत और गुमराह कुन है। चुनांचे मुझे दोनों किस्म की किताबों को सामने रखकर और कागज पर तारीखें जोड़-जोड़ हिसाब लगाना पड़ा कि हमारी तारीखे-अदब और सियासी तारीख में क्या रब्त है। इस जद्दोजेहद का नतीजा बहुत से मुकालमों के इलावा घोड़ों के सौदागर का किरदार है और इसी काविश ने ड्रामे का जमाना मुकर्रर करने में बहुत मदद पहुंचाई।
ड्रामे का जमाना लगभग 1810 ई. है। अगर आम राय के मुताबिक 1735 ई. नजीर की तारीख पैदाइश मान ली जाए तो इस जमाने में नजीर की उम्र कोई 75 वर्ष की होगी, अभी उनकी जिंदगी के 20 साल और बाकी थी। 1830 वफात का साल है। मैंने ड्रामे के लिए ये जमाना कई वजूह की बिना पर मुकर्रर किया।
नजीर ने 'खान आरजू' शाह हातिम, सौदा व 'मीर' से लेकर गालिब तक का जमाना देखा। 'मीर' के साथ उर्दू शाइरी का एक दौर खत् महोता है और 'मीर' का इंतकाल 1810 ई. में हुआ था जबकि गालिब की उम्र चौदह बरस की थी। मैं 'मीर' जैसे गिरां-कद्र शाएर के कलाम को सामने रख कर नजीर के बारे में बात करना चाहता था। और साथ ही ये इशारा भी मंजूर था कि इसी जमाने में उर्दू जबान ने अपना वो महबूब शाएर भी पैदा कर दिया था जो आगे चलकर 'गालिब' कहलाएगा।
ये वो जमाना था कि शख्सी हुकूमत की बुनियादें हिल चुकी थीं, मुगलिया सल्तनत का खात्मा हो गया था, अकबरे-सानी बराए-नाम दिल्ली के तख्त पर बैठे थे मुल्क में अंग्रेजों का इफ्तेदार बढ़ रहा था और चारों तरफ लूट-खसोट मची हुई थी। अन्दरूनी और बैरूनी हमलों से दिल्ली और आगरे पर बार-बार तबाही आ चुकी थी और शोराए-उर्दू दिल्ली छोड़कर भाग रहे थे और लखनऊ बहुत तेजी से अदबी मरकज बन चला था। लखनऊ नवाब सआदत अली खाँ का दौर-दौरा था और उर्दू शाइरी का इन्हेतात, जो उस दौर से वाबिस्ता है, शुरू हो गया था। साथ ही साथ उर्दू नस्न पनप रही थी और कलकत्ता में अंग्रेजों के कायम किए हुए फोर्ट विलियम कॉलेज में तर्जुमा व तसनीफो-तालीफ का काम बढ़ रहा था।
यानी उस दौरे-इन्हेतात में भी हमारे समाजी निजाम में वो अनासिर मौजूद थे जो आगे चलकर तरक्कीपसंद बनने की सलाहियत रखते थे। पुराना समाजी ढांचा टूट-फूट रहा था। चारों तरफ अफरातफरी और सियासी बेचैनी फैल रही थी। लोगों की इफ्तेसादी हालत दिन-ब-दिन गिर रही थी और इन हालात का रद्देअमल 47 साल बाद 1857 ई. की जंगे-आजादी की शक्ल इख्तेयार करने वाला था जिसका असर गालिब की शाइरी ने कबूल किया।
इन सियासी व समाजी हालात की रौशनी में नजीर के कलाम को देखा जाए तो उसकी सच्चाई और गहराई का सही अंदाजा होता है। चुनांचे मुझे उन्नीसवीं सदी की इब्तेदा का जमाना ड्रामे के लिए सबसे ज्यादा मानी खेज और मुनासिब मालूम हुआ, उसकी नज्मों का तारीखी तािया करने के लिए ये दौर बहुत मौजूद था।
मैं ड्रामे की बुनियाद नजीर की जिंदगी को नहीं बल्कि उसके कलाम को बनाना चाहता था। ड्रामा लिखनेके दौरान ये बात भी जेहन में आई कि नजीर को स्टेज पर न लाना ही बेहतर होगा। इससे न सिर्फ मेरे मौजूद के बहुत से मरहले तै हो गए बल्कि मेरी तकनीक पर भी इसका अच्छा असर पड़ा और तकनीक और मौजूद का गुथाव बढ़ गया।
नजीर के हाँ जो तसौबुफ है, मैं उसे ड्रामे का मौजूद नहीं बनाना चाहता था, बल्कि उसके बेशतर अशआर में जो जोश, उमंग और इंसानियत दोस्ती पाई जाती है, मैं चाहता था कि यही ड्रामे की रूहे-रवां बन जाए। चुनांचे अगर मैं 75 वर्ष बूढ़े नजीर को स्टेज पर ले आता तो अपनी बातसफाई से न कह पाता। उसका अशर बराहे रास्त मेरे मौजूद पर पड़ता।
फिर ये कि मैं नजीर को अमर देखता चाहता था। क्यूंकि ये हकीकत है कि उसका कलाम जिंदा-जावेद है। उसकी शख्सियत के अफसानवी पहलू को भी बरकरार रखना चाहता था। चुनांचे नजीर को सामने न लाकर ही मैं उसे तारीखे-अदब के ड्रामे का सबसे बड़ा हीरो साबित कर सकता था। किसी अदाकार के लिए बहुत मुश्किल था कि उस हीरो को अपनी तमाम अजमत के साथ बऐनेही स्टेज पर पेश कर दे।
एक मरहला ये पेश आया कि अगर नजीर सामने नहीं आया तो फिर क्यूं कर स्टेज पर उसकी मौजूदगी की फिजा और देखने वालों के दिलों में उसकी शख्सियत का एहसास पैदा किया जा सकता है। इस गुत्थी को सुलझाने में मुझे बहुत सी नई-नई बातें सूझीं उनमें से एक नजीर की नवासी का किरदार है। जिसका ख्याल मुझे इस बात से आया कि अब्दुलगफूर शहबाज ने नजीर के अक्सर हालाते-जिंदगी उनकी नवासी विलायती बेगम से मालूम किए थे।
इसी तरह मैंने पहले सोचा था कि मीर को स्टेज पर पेश करूं मगर ये इरादा भी तर्क कर दिया। अलबत्ता अलामती किरदारों से काम लिया, मसलन तजकिरानवीस न सिर्फ उस जमाने और उसके बाद के तजकिरा नवीसों की नुमाइंदगी करता है बल्कि उसके किरदार में मीर की शख्सियत की भी झलक मिलती है। इसे अबुलकासिम मीर कुदरतुल्ला, शेफ्ता, मीर की शख्सियतों का इम्तिजाज समझिए।
रवायती शाइरी के इन्हेतात की तसवीर शाएरनुमा आदमी के किरदार में और मुत्वस्सित तबके की मुतजाद जेहनियत का नक्शा उसके हमजोली के किरदार में पेश करने का फैसला किया।
खोमचेवालों, कुम्हार, पतंगफरोश वगैरह के किरदार मुझे बड़ी आसानी से नजीर की नज्मों में से मिल गए, उन नज्मों की ड्रामानिगारी मेरे काम आई, यहां तक कि पतंगफरोश और मदारी के अक्सर मुकालमे भी मुझे नजीर के अशआर ही से मिल गए।
एक माह के मुताले के बाद एक हफ्ते के अंदर मैंने ड्रामा लिखा और फिर जामिया मिल्लिया वालों ने मेरे साथ मिलकर एक ही हफ्ते में ड्रामा तैयार भी किया। काम करने वालों में जामिया मिल्लिया के असातेजा, तोलबा, और बच्चों के इलावा कुछ दिल्ली के लोग और दिल्ली के आस-पास के देहातों के मर्द और औरतें भी शामिल थीं, तुगलकाबाद, बदरपुर और ओखला गांव की मंडली भी शरीक थी, ओखले का एक गदहा और मेंढ़ा भी। सब मिलाकर कोई 75 आदमी बयक वक्त स्टेज पर आए। उनकी रात-दिन की जां फिशानी का नतीजा था कि हाजरीन में से हर तबके के आदमी ने बड़ी गर्मजोशी से उनका इस्तेकबाल किया और अक्सर लोगों ने ये ख्वाहिश जाहिर की कि इस शहर में भी दिखाया जाए। चुनांचे ड्रामा जामिया ड्रामेटिक सोसाइटी की तरफ से नई दिल्ली में हो रहा है।
खास तौर पर बेगम कुदसिया जैदी, बेगम अनीस किदवई, मिसेज एलिजाबेथ गाबा और प्रो. मो. मुजीब की सरपरस्ती ने ड्रामा करने वालों के हौसले बहुत बढ़ाए, और उन्हीं की काविशों का नतीजा है कि 19, 20, 24 और 25 अप्रैल को ड्रामा शहर में दिखाया जा रहा है। पचास-साठ आदमियों की कास्ट इन दिनों उसी की तैयारी में लगी हुई है। और उनमें से हर शख्स के दिल में यही एक ख्याल है कि-
हवस है अब तो यही नक्दे-दिल तलक दीजे
शराबे-इश्ंक को खूबाँ में बैठकर पीजे
भरा है दिल में बहुत शौंक आह क्या कीजे
नाीर आज भी चल कर बुतों से मिल लीजे
फिर इशत्यांक का आलम रहे न रहे।