ज़ुबैर रज़वी
| (जन्म: मुरादाबाद, 1926--निधन: दिल्ली, 2010) जब कोई अदीब हमारे दरमियान से उठ जाता है तो अमूमन समाजी रवैया यह होता है कि उसके बारे में लिखके या बोलते हुए उसके किरदार की खामियों, कमज़ोरियों को नज़रंदाज़ करते हुए वो खूबियां उसकी ज़ात से वाबस्ता कर देते हैं जो उसके किरदार और ज़ात का हिस्सा थीं ही नहीं। उसकी रस्मी तारीफों के पुल बांधने वाले ये वो लोग होते हैं जो ऐसी शोकसभाओं में सबसे पहले आते हैं और सबसे पहले शोक के दो चार आंसू बहा के सभा से बाहर चले जाते हैं। अभी जब 24 अपै्रल 2010 को मुहम्मद हसन का जनाजा़ दिल्ली गेट के कब्रिस्तान में दफनाने के लिए लाया गया तो ये अंदाजा़ लगाना मुश्किल न था कि अभी हाल के वर्षो में कुर्रतुल-एन -हैदर और उनके बाद वफात पाने वाले अदीबों के जनाज़े में शरीक लोगों की तदाद के मुकाबले मुहम्मद हसन को दफनाये जाने के वक्त़ दिल्ली के सबसे ज़्यादा अदीब और उस्ताद व उनकें शागिर्दों का एक बड़ा हल्का मौजूद था। ये उस वक्त़ था जब मुहम्मद हसन एक अर्से से गोशादीद थे और अपनी अदबी सरगर्मियों का एक लंबा सफर बामानी अंदाज़ में तय करके वो उर्दू की मनसबदारियों के लिए जोड़ तोड़ करने वाले औसतियों की अदबी बाज़ीगरी और करतबों के खामोश तमाशाई बन गये थे। मुहम्मद हसन के इंतकाल के कुछ दिनों बाद दिल्ली से प्रकाशित होने वाली तीन साहित्यिक पत्रिकाओं, ऐवाने उर्दू, अदबी दुनिया, उर्दू आजकल, ने अपने सरे वर्क़ पर और अंदरूनी सफात पर उनकी यादगार तस्वीरें शाया करते हुए उन पर दो दर्जन से ज़्यादा ताज़ा मज़ामीन शाया किये। उर्दू आजकल ने अपना जुलाई का पूरा शुमारा ही मुहम्मद हसन की अदबी सरगॢमयों के लिए ही मख्सूस कर दिया है। जो लोग मुहम्मद हसन के अदबी रवैयों और नज़रियात और उनकी हमाजेहत तहरीरों से अच्छी तरह वािकफ न होकर महज़ सरसरी जानकारी रखते रहे थे उनके लिए भी और उनके लिए भी जो उनके अदबी सरोकारों से अच्छी तरह वािकफ थे इन तीनों रिसालों में शामिल मज़ामीन में मुहम्मद हसन का जो अदबी और तख्लीकी सरापा है वो किसी रगोंरोगऩ और लीपापोती के बगैर पूरी शफ्फाफियत के साथ उभर कर सामने आया है। उन्होंने अदबी सियासत नहीं की, वो जोड़तोड़ और उर्दू इदारों पर कब्ज़ा करने और उन इदारों को अपनी अदबी सल्तनत की तौसी के लिए इस्तेमाल करने की कोई शतरंज नहीं खेली। वो मसलेहतसाज़ी को बुरा समझते थे। अपनी सच्ची और कड़वी बात बरमला कहने में झिझकते नहीं थे। माकर््िसज़्म को अपने लिए और इंसानियत के लिए एक रहनुमा निज़ामे फिक्र तस्लीम करते थे। तनकीद में वो समाजियाती ज़ाबिये पर इसरार करते थे और तहज़ीबी तारीख को अपनी तनकीद की बुनियाद समझते थे। वो नुमोदोनुमाइश से बचते रहे और जहां जहां उनकी सलाइयतों और काबिलियत ने उन्हें पहुंचाया वहां उन्होंने लगन, खुलूस और अटूट कमिटमेंट के साथ एक बड़े तनाजुर में अदब और ज़बान की तौसी और फरोग के लिए काम किया। मुहम्मद हसन के जिस्मोजान, उनकी सोच, उनका सारा ज़हनी अमल अपने खरेपन की बिना पर साफ साफ झिलमिल करता नज़र आता था। मुहम्मद हसन को अमूमन मजनूं गोरखपुरी, आले अहमद सुरूर, एहतेशाम हुसैन और मुमताज़ हुसैन जैसे तरक्कीपसंद नक्कादों के फौरी आने वाले उर्दू आलोचकों की नयी नस्ल में गिना जाता था। और यह समझा जाता था कि वो अपने से पहले की उर्दू आलोचना को माक्र्सी नुक्तेनज़र से रौशन करने वाले तरक्कीपसंद नक्कादों के विचारों की तौसी करने वाले नक्काद हैं। मुहम्मद हसन ने आलोचना के अलावा रचनात्मक साहित्य की मुख्तलिफ विधाओं जैसे शायरी, नावेल, अफसाना पर भी तवज्जो दी। इसके अलावा ड्रामों में भी उनकी गहरी दिलचस्पी थी, उनके पास करीबी दोस्तों ने लखनऊमें मुहम्मद हसन के अदबी शबोरोज़ का एहाता करते हुए काफी कुछ दिलचस्प पैराये में लिखा है। शारिब रुडौलवी ने 'मुहम्मद हसन को आखिरी सलाम’ में लिखा है : उनके आने की खबर लखनऊ में जंगल की आग की तरह फैल जाती थी और उस वक्त़ के तमाम नौजवान अदीबोशायर और यूनिवर्सिटी के तल्बा उनके पास पहुंच जाते थे। उनमें कमर रईस, इकबाल मजीद, आबिद सुहैल, रतन सिंह, आगा सुहैल, मंज़र सलीम, शौकत उमर लखनऊ के तरक्कीपसंद शायर और स्टूडेंट्स फेडरेशन के नौजवान सब जमा हो जाते थे और कभी यह भी नौबत आ जाती थी कि बैठने को जगह नहीं रह जाती थी। उनके साथ नौजवान दोस्तों की गुफ्तगू का महवर अदब, शायरी, ड्रामा या फिर सियासत और माॢक्सज़्म होता-- उनके आने से जैसे ज़हन में दरीचे खुल जाते थे, एक नयी तवानाई के साथ हम सब के कलम चलने लगते थे।
| मुहम्मद हसन एक मुस्तरिब हिस्सियत के मालिक थे। वो हमेशा कुछ न कुछ नया और सब के लिए खासतौर से उर्दू के लिए ऐसा कुछ करना चाहते थे जो उर्दू को और उसकी पढ़ाई लिखाई को समाज और बदलते हुए हालात से हमआहंग रख सके। वो लखनऊ, अलीगढ़, कश्मीर और दिल्ली की यूनिवर्सिटियों से वाबस्ता रहे और हर जगह उन्होंने उर्दू शोबे को अपने ज़माने के आधुनिक और नये तकाज़ों से वाबस्ता रखने के लिए ज़मीन हमवार की और फज़ा बनायी। जे एन यू उनकी तदरीसी सरगर्मियों की आखिरी पड़ाव था, वहां वो 1974 से 1991 तक उर्दू पढ़ाते रहे। इस अरसे में मुहम्मद हसन का तमाम तवज्जो फिक्र जे एन यू के उर्दू शोबे को एक मिसाली शोबा बनाने की रही। मुहम्मद हसन की कोशिशों से जे एन यू उर्दू-हिंदी का मुश्तरका शोबा हिंदुस्तानी ज़बानों का मरकज़ कायम किया गया। दोनों ज़बानों को पढऩे वालों के लिए एक दूसरे की ज़बान और उनके दरमियान तख्लीकी और लिसानी रिश्तों को मुतारिफ कराने का कोर्स भी शुरू किया गया था ताकि उर्दू-हिंदी के दरमियान किसी टकराव के पनपने का मौका न मिले। इसके अलावा, यूनिवर्सिटी के तल्बा में हिंदुस्तानी अदब और उसकी रवायत का इरफान कराना भी मुहम्मद हसन की सोच का एक हिस्सा था। उनकी शिख्सयत का बेहद रौशन पहलू यह था कि वो हिंदी और उर्दू के तख्लीकी़ अदब को एक बड़े फिक्री तनाज़ुर में रखकर उसका मुताला करने पर इसरार करते थे। वो नज़री और अमली तनकीद में यकीन रखते थे। इसकी कुछ झलक उनकी किताब, हिंदी अदब की तारीख में भी मिल जाती है। वो उर्दू के पहले नक्काद हैं जो तहज़ीबी तारीख को अदबियात के मुताले के लिए एक ज़रूरी कड़ी समझते हैं। इस सिलसिले में उनके पी एच डी के मकाले, 'उर्दू अदब- शाहाने अवध के दौर में’, और उनके दो और मकाले, 'उन्नीसवीं सदी में शुमाली हिंद के अदब के फिक्री असालीब, 'उर्दू अदब में रूमानवी तहरीक और दिल्ली की उर्दू शायरी का तहज़ीबी और फिक्री पसमंज़र (अहदे मीर तक)’ काबिले गौर हैं। उनकी ये ऐसी नुमाइंदा तहरीरें हैं जो तहज़ीब और तारीख के सिलसिले में उनके नुक्ते नज़र को रौशन करती हैं। मुहम्मद हसन का मुताला वसी था। वे बड़े साफ सुथरे अंदाज़ में किसी नज़री कन्फ्यूज़न के बगैर अदबी मबाहिस पर अपने ज़ाबिये से मुदल्लल गुफ्तगू करते थे। उनकी कोशिश होती थी कि वो मबाहिस को उलझाये बगैर उन्हें शफ्फाफियत के साथ कारीं पर वाज़े कर दें। उर्दू अदब की समाजियाती तारीख उनकी एक बेहद अहम किताब है। वो अपने एक मज़मून में लिखते हैं : हम अदब के घरौंदे अलग से बना कर कितने ही खुश क्यों न हो लें, मगर ये सारे घरौंदे बनते हैं पूरे अदबी मआशरे की अक्कबी ज़मीन पर। यह अलग बात है कि उस अक्कबी ज़मीन का रंग यहां कुछ और दिखायी देता है, मगर यह हमारे दौर, हमारे ज़माने और हमारे मआशरे की ही ज़मीन है। (तर्जे खयाल, पृ. 180) मुहम्मद हसन की तन्कीदी सोच और शऊर की यह खूबी सबने तस्लीम की है कि वो किसी भी अदबी रुझान के मारूज़ी तजजि़ये के हक में थे। उनका कहना था कि हर निज़ाम अपना निज़ाम अपने साथ लाता है। उसका फलसफा, उसका साहित्य, उसका आर्ट, उसकी समाजी तरबियत से हमआहंग होता है। मुहम्मद हसन किसी भी अदबी सोच की एक मरकज़ पर गर्दिश करते रहने के हक में नहीं थे। वो खयाल और सोच में तौसी और तब्दीली के खायफ नहीं थे और न उससे 'एलर्जिक’ थे। इसके बरिखलाफ वो तन्कीद के इम्कानात और मुताले की आदतों में तब्दीली लाने के हक में थे। इसलिए मुहम्मद हसन माक्र्सी नक्काद होते हुए भी कारीं के एक बड़े हलके के लिए अपनी मस्कूरा सोच की बिना पर काबिले कबूल रहे थे। इसका बड़ा सबब अपने ज़माने के तख्लीकी और फिक्री ज़हन रखने वालों के साथ उनका मुसल्सल तबादला-ए- खयाल करने का मन रहता था। यह शायद 1958 के आसपास का ज़माना था, उनकी नयी नयी शादी हुई थी, मैं श्रीनगर के एक मुशायरे में और वो अपनी दुलहन, रौशन आरा बेगम, के साथ हमारी ही बस में हमसफर थे। हम एक दूसरे से वािकफ नहीं थे, मगर नये ब्याहता जोड़े को जहां जहां बस ठहरती और मुसाफिर उतरते उन्हें ज़रूर देखते। वो मुशायरे में नज़र नहीं आये, और आते भी क्यों, वो तो कश्मीर हनीमून के लिए आये थे। मुहम्मद हसन की सरगर्मियों का ज़्यादातर मरकज़ यूनिवर्सिटियां और शोबे थे जहां उनका तक़र्रुर होता रहा था । वो जब दिल्ली आये तब मैं आल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस में था, जहां सलाम मछलीशहरी भी थे। वो मुहम्मद हसन के बेतकल्लुफ और करीबी दोस्तों में थे। मुहम्मद हसन टॉक रिकार्ड कराने आते और सलाम के साथ चेक लेकर रीगल बिल्डिंग की एक दुकान पर कैश करा कर कनाट प्लेस की गलियों में नाओनोश के लिए गुम हो जाते थे। रफ्ता रफ्ता मुहम्मद हसन से अदबी गुफ्तगू भी होने लगी। मैंने जब अपना और अपने एक दोस्त नसीर खां का ज़रे सालाना उनके रिसाले,असरी अदब, के लिए मनीआर्डर से भेजा तो मुहम्मद हसन बहुत खुश हुए थे। वो असरी अदब से बहुत लगाव रखते थे और जो उसकी तौसी में हिस्सा लेता उसको मेहरबान नज़रों से देखते। उस वक्त मुहम्मद हसन की इल्मियत के बड़े चर्चे थे। मगर यह मेरी आवारागर्दी का ज़माना था, जब सज्जाद ज़हीर जैसी कद्दावर शिख्सयत ने दस्ते मेहरबां रखा, तो दिल्ली के नौजवान अदीबों का रवैया मेरे इसरार पर थोड़ा बदला और उस वक्त़ के सभी लिखने वाले अंजुमन तरक्कीपसंद मुसन्निफीन के जलसों में आने लगे थे। काफी हाउस में बैठकर अदब पर गरम गरम बहस करने वाले नौजवान अदीबों को खुशी हुई थी कि सज्जाद ज़हीर ने अंजुमन तरक्कीपसंद मुसन्निफीन के जलसों को मुनिक्कद करने की जि़म्मेदारी मुझे सौंपी थी। मुहम्मद हसन से मेरी फिक्री कुर्बत और किसी कदर अपनाइयत का ज़माना वह था जब मैंने उर्दूू ड्रामे पर काम शुरू किया। मुहम्मद हसन का एक ड्रामा ज़हाक काफी मशहूर हुआ था, वो रेडियो के लिए भी बहुत से ड्रामे लिख चुके थे। गालिब पर उनके दो ड्रामे, तमाशा और तमाशाई और कोहरे का चांद, मैने अपनी किताब तमाशा मेरे आगे, में शामिल किये थे जिसमें दिल्ली में कामयाबी से स्टेज हुए सात ड्रामों के टैक्स्ट भी थे। अपनी लंबी भूमिका में मैंने मुहम्मद हसन के गालिब पर लिखे ड्रामों को सराहते हुए यह लिखा था : मुहम्मद हसन के ड्रामे तमाशा और तमाशाई में गालिब की बंटी हुई शिख्सयत का बड़ा पुरदलील मुहासिबा है। उसमें कई सीन उनके ड्रामे, कोहरे का चांद से फ्लैशबैक के तौर पर लिये गये हैं। इन टुकड़ों ने ड्रामे में मिर्जा नौशा और गालिब के दरमियान सवालो जवाब, तज़ाद और टकराव वाले मुकालमों में ज़ोर पैदा कर दिया है। मुहम्मद हसन वाहिद ड्रामानिगार हैं जिन्होंने हयाते गालिब और गालिब के अहवाल कवायफ पर दो अलग अलग ज़ाबियों से ड्रामे लिखे, तमाशा और तमाशाई, दर असल, उनके अपने ही ड्रामे, कोहरे का चांद की तौसी है। सैयद मेंहदी, सुरेंद्र वर्मा और मुहम्मद हसन ऐसे तीन ड्रामानिगार हैं जिनके गालिब पर ड्रामे मेरे खयाल में सब में अच्छे ड्रामे हैं। शायद इसीलिए मुहम्मद हसन के गालिब पर लिखे ड्रामों की गूंज मेरी मुरत्तिबा उर्दू ड्रामे की दूसरी एंथोलाजी में भी सुनायी देती है। इसका इल्म मुहम्मद हसन को होता रहा और वो अपने ड्रामों पर गुफ्तगू करने के बजाय इस बात से खुश होते थे कि मैंने उर्दू ड्रामों के मज़मुई तौर पर 47 टैक्स्ट उर्दू पढऩे वालों को किताबी सूरत में फराहम करके उर्दू ड्रामों के लिए फज़ासाज़ी का बड़ा काम किया और यह साबित कर दिया है कि आज़ादी के बाद उर्दू ड्रामा खत्म नहीं हुआ, बल्कि वह और ज़्यादा तवानाई के साथ स्टेज पर खेला जाता रहा है। मुहम्मद हसन एक अरसे तक जनवादी लेखक संघ के सदर भी रहे, और जब मैंने जनवादी लेखक संघ से वाबस्तगी अिख्तयार की तो वो खुश थे। साहित्य अकादमी और दूसरे इदारों को ज़ाती मफाद के लिए इस्तेमाल करने की धांधलियों के खिलाफ जो जनवादी लेखक संघ ने तहरीक चलायी, उसे मुहम्मद हसन ने हमेशा कद्र की निगाह से देखा, मेरे रिसाले ज़हने जदीद को पढ़ते हुए उन्होंने एक बार बहुत ही दिलचस्प जुमला कहा था, 'आप मेरी सोच की परछाईं हैं।’ मुहम्मद हसन अपनी जि़ंदगी में और मरने के बाद भी उसी रंगरूप में नज़र आ रहे हैं जो उनका कुदरती रंगोरूप था। वो सच्चे और खरे अदीब थे। मसलहतों और जोड़तोड़ से बिल्कुल अलग और अपनी सोच और फिक्र के उन किनारों पर रहना पसंद करते थे जहां पर उछाल भरता हुआ पानी उन्हें कुछ करने के लिए मुस्तरिब रखता था। |
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